Place of Samadhi: - Fatehgarh (In the premises of his Guru’s Samadhi, his some ashes were buried in a discreet corner)

       ​​परमसंत महात्मा श्री हरनारायण जी सक्सेना
                                 (English Translation at the end of this page)

परमसंत महात्मा श्री हरनारायण जी सक्सेना का जन्म 20 मार्च 1908 मैं पिड़ावा राजस्थान में हुआ । तब यह प्रदेश राजपूताना कहलाता था । आपका बचपन टोंक राजस्थान में बीता । आप के पिता टोंक प्रदेश में काम करते थे  । आपको एक  कायस्थ परिवार का शालीनता पूर्ण धार्मिक वातावरण मिला ।

आप लिखते हैं - टोंक (राजस्थान) से सन् 1925 में हाई स्कूल पास करके मैं कानपुर सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ने गया । मेरे भाई साहब बाबू आनन्द स्वरूप जी वहां रहते थे श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में जाने वालों में एक पुराने अभ्यासी थे । अक्टूबर 1925 में एक संध्या को वे मुझे भी अपने साथ ले गए और श्रीमान चच्चा जी महाराज के सामने बैठा दिया । थोड़ा सा परिचय दे दिया । श्रीमान जी मुझ से थोड़ी बात करके अपने परिवार के सदस्यों, भाई साहब आदि से बातें करते रहे । लौटते समय मुझसे कहा जब फुरसत हो कभी-कभी हमारे पास आ जाया करो । मेरी आयु उस समय केवल 17 वर्ष की थी । श्रीमान के विषय में मैं क्या समझ सकता था । परन्तु कुछ आकर्षण (खिंचाव) के कारण उनके पास जाने लगा । कुछ दिनों बाद आपने मुझे अभ्यास बतलाया और कराया । आज्ञा दी कि इसे रोज प्रातः कर लिया करो । उनकी दया कृपा से ये अभ्यास तभी से चल रहा है और जीवन पर्यन्त चलता रहेगा । श्रीमान लालाजी महाराज के परिवार से मेरा कोई सीधा पारिवारिक संबंध नहीं था, परन्तु मेरे पूज्य भाईसाहब कानपुर निवासी, बाबू आनन्दस्वरूप जी जिनके द्वारा मैं श्रीमान् चच्चाजी महाराज और फिर श्रीमान् लालाजी महाराज की शरण में पहुंचा, उनका पारिवारिक संबंध था । श्रीमान् लालाजी महाराज के साथ-साथ श्रीमान् मुंशी चिम्मनलालजी मुख्तार भी हुजूर महाराज के दरबार में पहुंचे थे । इन मुंशी चिम्मनलाल साहब की बहिन का विवाह तो महात्मा डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी से हुआ था और बड़ी पुत्री का विवाह मेरे भाईसाहब श्री आनन्द स्वरूप से हुआ था । दूर का संबंध होते हुए भी मेरा अध्यात्म का संबंध इन श्रीमान् डॉक्टर साहब के परिवार से घनिष्ठता का हो ही गया । हमारी पूज्य गुरु माताजी ( धर्म पत्नि महात्मा श्रीमान् लालाजी महाराज) के भ्राता उ.प्र. के आबकारी विभाग के निरीक्षक थे । इन्होंने अपनी पुत्री के लिये श्रीमान् लालाजी महाराज से परामर्श मांगा तो श्रीमान् लालाजी महाराज ने मेरा नाम बतला दिया । मुझे आपके पास आते लगभग दो वर्ष हो गये थे । भाग्यवश यही संबंध पक्का हुआ और फरवरी 1928 में विवाह सम्पन्न हो गया जिसमें श्रीमान् लालाजी महाराज की प्रमुख भूमिका रही । वे विवाह के सभी आयोजनों (रस्मोरिवाज) में उपस्थित रहे और दिशा निर्देश करते रहे । इस प्रकार से मेरा पारिवारिक संबंध भी गुरु परिवार से हो गया । फिर मार्च  1928 में ही एक बार श्रीमान् लालाजी महाराज के कानपुर पधारने पर पूज्य भाईसाहब परमसंत बाबू ब्रजमोहन लाल साहब ने मुझे भी दीक्षा के लिये श्रीमान् लालाजी महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया और आग्रह करके मेरी दीक्षा करा दी । श्रीमान् लालाजी महाराज जी इन भाई साहब की बात मान लेते थे । इतनी इन संत पर उनकी कृपा थी । मुझे अपने विद्यार्थी जीवन (1925-1930) में कई वर्ष श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसके पश्चात् भी उनकी सेवा में समय-समय पर जाता रहा । गुरुदेव श्रीमान लालाजी महाराज के सन् 1931 में निर्वाण के बाद लगभग 16 वर्ष तक आप सारे सत्संग परिवार का अध्यात्म से सिंचन करते रहे तथा मेरा सम्पर्क आप से ही पूर्ण रूप से बना रहा । मुझे इस मार्ग में सारा मार्ग दर्शन आप ही से मिला और आज भी मिलता है ।

महात्मा रामचन्द्र जी को सब मतों की धार्मिक पुस्तकों पर विश्वास था । प्रत्येक धर्म के महापुरुषों का वे आदर करते थे, उन की वाणी को पढ़ते और सुनते थे और उनके वचनों का बहुत आदर करते थे । महात्मा जी आजीवन अपने गुरुदेव के आदेश पर दृढ़ता पूर्वक चलते रहे और वह आदेश यह था कि “जिस धर्म में जन्म लिया है उसी के अनुसार कर्म-काण्ड करना चाहिये ।” अतः यद्यपि उनके गुरुदेव इस्लाम धर्म की शरह (कर्म-काण्ड) के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते थे वे स्वयं हिन्दू होने के नाते हिन्दू रीति-रिवाजों को बरतते थे । न कभी महात्मा जी ने रोज़ा रखा और न नमाज पढ़ी । अपनी तस्वीर खिंचवाने या उसको प्रेमी-जन अपने घर में रखने का महात्मा जी विरोध न करते परन्तु उसे मूर्ति की तरह पूजने के आप विरुद्ध थे । महात्मा जी अपने चरण छुआना पसन्द नहीं करते थे परन्तु जो प्रेमी-जन चरण छूना चाहते थे उन्हें इसलिये नहीं रोकते थे कि यह प्रथा हिन्दुओं में बहुत पहले से चली आई है कि गुरु जनों को प्रणाम चरण छू कर किया जाता है ।

अपने आध्यात्मिक वंश के पूर्व महापुरुषों के प्रति उनका बड़ा आदरभाव था । वे कहा करते थे कि हमारे वंश की महानता हमारे पूर्वजों के कारण है । सदा उनके लिए प्रार्थना करते रहते और किसी भी सांसारिक या पारमार्थिक काम में सफलता मिलने पर उन्हें धन्यवाद देते और उसको उन्हीं के अर्पण करते ।

सिद्धि शक्ति को वे जानते थे परन्तु उनके क़ायल नहीं थे । गन्डे ताबीज़ के भी महात्मा जी पक्ष में नहीं थे यद्यपि वे इस विद्या को भी जानते थे और अपने प्रेमी शिष्यों में से उन्होंने कईयों को यह विद्या बताई और ताबीज देने की इजाजत भी दी । हाँ, यदि उन्हें कोई मजबूर करता तो वे ताबीज लिख देते थे ।

सदाचार से रहने पर वे बहुत जोर देते थे । उनका कहना था कि जब तक आचरण पूर्णतया ठीक नहीं हो जाता तब तक आत्मानुभव नहीं होता । ज्यादा अभ्यास (रियाज़त) और वज़ीफ़ा पढ़ने के पक्ष में न थे बीच का रास्ता पसन्द करते थे । महात्मा जी का कहना था कि दिल का अभ्यास सबसे ऊंचा है, इसका असर शरीर, मन और आत्मा पर पड़ता है । दिल को काबू में रखना और उसे तरतीब देते रहना यही असली अभ्यास है ।

प्रार्थना (दुआ) में उनका बहुत विश्वास था लेकिन अपने लिये व दुनियावी फ़ायदे के लिये प्रार्थना (दुआ) करना उन्हें मंजूर न था । दूसरों के लिये हर वक्त दुआ करने को तैयार रहते थे ।

महात्मा जी का कहना था कि गुरु हर मनुष्य को करना चाहिए लेकिन गुरु बहुत देख-भाल कर करना चाहिये । एक बार गुरु धारण कर लेने पर अपने आपको पूरी तरह अपने को गुरु के आधीन कर देना चाहिए जिस तरह मुर्दा ज़िन्दों के हाथ में होता है ।

इन संतों के गुरुदेव हुजूर महाराज, इन सबसे इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने अपना सब कुछ ही इन्हें दे डाला । कहते हैं उनका यह भी आशीर्वाद था कि इनके वंश में हमारी यह नक्शबंदिया परम्परा सात पुश्तों तक चलेगी । इस समय इनकी चौथी पीढ़ी तो आ ही चुकी है और उनके सदस्य इस संत परम्परा में दीक्षित और कार्यरत भी हैं । आप सब ने फतेहगढ़ भण्डारा, कानपुर भण्डारा व जयपुर, गाजियाबाद तथा सिकंदराबाद भण्डारा आदि में यह सब प्रत्यक्ष रूप से देखा भी है । आशीर्वादानुसार आगे की तीन पीढ़ियां कौन दूर हैं । हमारे आगे आने वाले संत परम्परा के सदस्य ही उसे भी यथार्थ होते हुए देखेंगे, मुझे ऐसा विश्वास है ।

श्रीमान् लालाजी महाराज, श्रीमान् चच्चाजी महाराज (कानपुर) और श्रीमान् छोटे चच्चाजी महाराज (जयपुर), ये तीनों ही सन्त, बड़े गुरुमहाराज अर्थात परम संत सद्‌गुरु मौलवी फ़ज़ल अहमद खां साहब से दीक्षित थे । दादा गुरु महाराज ने जब हमारे गुरु भगवान को पूर्ण करके अपना सारा आध्यात्मिक सत्संग उन्हें को दिया तो फिर सारा ही कार्य भार उन्हें संभला दिया तो फिर आपने एक प्रकार से सारा ही कार्य श्रीमान् लालाजी महाराज के लिए छोड़ दिया । इस प्रकार श्रीमान् चच्चाजी महाराज, छोटे चच्चाजी महाराज (जो गुरु महाराज के समय छोटे ही थे) इत्यादि उनके अन्य शिष्यों के पूर्ण करने का कार्य भी श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा ही हुआ । बड़े गुरु महाराज तो निजधाम को पधार गए फिर उनके आदेशानुसार श्रीमान् लालाजी महाराज ने समय पर इन दोनों को पूर्ण किया और गुरु पदवी प्रदान की ।

हमारे दादा गुरु महाराज के गुरुदेव - हजरत जनाब खलीफ़ा जी साहब (उस सत्संग में इसी नाम से आपको याद किया जाता है) के एक शिष्य और भी थे जिनका शुभ नाम परमसंत सद्‌गुरु हाज़ी मौलवी अब्दुल गनी ख़ाँ साहब था । बचपन में आप अपने पिताजी के साथ फर्रुखाबाद में रहते थे । इनका भी कार्यक्षेत्र (आध्यात्मिक) श्रीमान् लालाजी महाराज से कुछ अलग नहीं रहा । ये चारों आध्यात्मिक परिवार भी आपस में खूब घुले मिले रहे । हम ऊपर कह आए हैं कि श्रीमान् लालाजी महाराज ने अपनी तथा अपने दोनों छोटे भ्राताओं की संतानों को इन्हीं हुजूर जनाब मौलवी साहब से दीक्षित कराया । इस प्रकार वे ही परिवार के सभी भ्राताओं के दीक्षा गुरु रहे । हमारे गुरु महाराज के हृदय में आपके लिए बड़ा आदर था और बहुत दिनों तक आप दीक्षा न देकर जो भी नया व्यक्ति आता उसे हुजूर जनाब मौलवी साहब के सामने प्रस्तुत करते । फिर जब हुजूर मौलवी साहब ने आग्रह किया कि आप स्वयं दीक्षा क्यों नहीं दें, तब कहीं आपने दीक्षा देना प्रारम्भ किया । यह उनके प्रति हमारे गुरु भगवान का आदर भाव था । इस आदर के आदर्श को भी हमारे सत्संगी भ्राताओं को भली-भांति समझना चाहिए । आदर का यह उत्कृष्ट उदाहरण है जो हमारे पूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित किया गया ।

कानपुर वाले श्रीमान् चच्चाजी महाराज सद्‌गुरु की पदवी बहुत पहले ही श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा पा चुके थे । आपने भी यही आदर्श प्रस्तुत किया कि श्रीमान् लालाजी महाराज के जीवनकाल में किसी को भी दीक्षा नहीं दी । दीक्षा का कार्य आपने श्रीमान् लालाजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् ही प्रारम्भ किया । कुछ ऐसे उदाहरण भी देखने में आए हैं जिनमें दीक्षा का कार्य करने के लालायित वरिष्ठ सत्संगियों ने इस आदर्श आदर भाव को नहीं निभाया ।

हमारे ये हुजूर जनाब मौलवी साहब हमारे इन तीनों भ्राताओं के परिवारों से इतने घुले मिले थे कि किसी प्रकार का कोई छुपाव नहीं था । यहां तक कि हिन्दू मुसलमान का भी अंतर दिखाई नहीं पड़ता था । यह सब मेरा देखा हुआ है । मेरा अनुमान है कि हमारे श्रीमान् मौलवी साहब के परिवार का सम्पर्क मुस्लिम परिवारों से घनिष्टता का न होकर, इन तीनों परिवारों से अधिक था ।

हुजूर महाराज द्वारा जो ठोस नींव इस कार्य की डाली गई वह अवश्य ही अप्रत्याशित थी । आपने अपने शिष्यों में केवल श्रीमान् लालाजी महाराज को पूर्ण किया और सारा ही आध्यात्म का कार्य तथा अन्य महानुभावों को पूर्ण करने का कार्य श्रीमान् लालाजी महाराज के लिए छोड़ दिया । श्रीमान् लालाजी महाराज के वरिष्ठ शिष्यों द्वारा इस विषय में पूरी-पूरी जानकारी दी भी गई है जो उपलब्ध भी है । वैसे अपनी जानकारी की बहुत सी घटनाएं मैंने अपनी पुस्तक  'यादें' में सविस्तार दी हैं ।

सन् 1925 में मैं इसमें आया और सन् 1928 में मुझे श्रीमान लाला जी द्वारा दीक्षा दी गई । इस समय श्रीमान लालाजी के अन्य वरिष्ठ शिष्यों द्वारा फैलाई इसकी अनेकानेक शाखाओं में लगभग सभी से मेरा परिचय तथा सम्पर्क रहा है । किसी भी शाखा में मुझे बहुत सारा साहित्य उपलब्ध होने के उपरान्त भी, ऐसी कोई लिखित अथवा अलिखित साधन पद्धति नहीं मिली, जिसके द्वारा आरम्भ से अन्त तक अवलम्बित होकर साधन की पराकाष्ठा को पहुँचा जा सके । श्रीमान् लाला जी महाराज के वरिष्ठ शिष्यों ने नवागन्तुकों के लिये बहुत कुछ पूजा की विधि लिखी भी हैं परन्तु वह सब प्रारम्भिक अथवा सांकेतिक ही हैं । खोज करने पर इस विषय में जो कुछ भी मुझे श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा अथवा उनके वरिष्ठ शिष्यों द्वारा दिया गया अथवा मिला है - वह मैंने संक्षेप में पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया है ।

सच तो यह है कि ध्यान की क्रिया लिखकर (अर्थात शब्दों द्वारा बोलकर) समझाया जाना सम्भव भी नहीं है । ध्यान की क्रिया को शक्तिपात द्वारा कराकर ही सरलता से अनुभव कराया जा सकता है । शब्दों द्वारा कुछ प्रारम्भिक बातें भले ही बतला दी जावें परन्तु ध्यान की पद्धति का वर्णन करना संभव नहीं है । पुराने सत्संगी होने के नाते मुझ से भी बहुधा यह प्रश्न पूछा जाता है, परन्तु मैं भी शब्दों द्वारा उनका सन्तोष नहीं कर पाता जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ । जितना भी लिखकर बताया जा सकता है । लालाजी महाराज ने तथा उनके वरिष्ठ शिष्यों ने लिखा भी है और मैं भी वही न्यूनाधिक सब फिर लिख रहा हूँ जिसके लिये मुझसे कई सत्संगियों ने ( जिन्हें शिक्षा का कार्य दिया गया है ) अनुरोध व आग्रह किया है परन्तु यह सब भी अपर्याप्त ही है ।

भली भांति समझ लीजिए कि यह जाति-पांति, ऊंच-नीच तो इस संसार में बहुत है पर भगवान नारायण के यहां कुछ नहीं है । जो इस परम्परा को मुस्लिम महानुभावों की समझ कर घृणा करते हैं अथवा इससे बचना चाहते हैं वे संकुचित विचारों के होकर अपनी भारी हानि कर रहे हैं और जो लाभ उन्हें मिल सकते हैं उनसे अपने आपको वंचित रख रहे हैं । अतः यह भावना सर्वथा त्याज्य है । मानव जाति एक है और इसमें भगवान के यहां कोई भेदभाव नहीं है । हमें भेदभाव करके अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहिए ?

दीक्षा की रस्म भारत में ही नहीं - और देशों में भी प्रायः आध्यात्म शिक्षा का एक आवश्यक अंग रही है । हमारे श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा प्रचारित अभ्यास में भी इसे आवश्यक बतलाया गया है । उनके जितने भी वरिष्ठ शिष्य हुए हैं और जिनके कार्य का संसार के अनेक भागों में प्रचार-प्रसार हुआ वे सभी श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा दीक्षित किए गए थे । बाद में उनके शिष्यों ने भी इस परम्परा को प्रचलित (कायम) रखा । देखने में आता है कि यह दीक्षा की परम्परा सभी धर्मावलम्बियों में पाई जाती है ।

दीक्षा में गुरु अपने शिष्य को अपने गुरुदेव के माध्यम से परम्परा के सारे गुरुओं से जोड़ देते हैं और एक प्रकार से शिष्य को उन महान आत्माओं को सौंप देते हैं और फिर उनके (उन गुरुओं के) सेवक की भांति शिष्य की सदा शिक्षा देते और संभाल करते रहते हैं ।

'दीक्षा देना' को उर्दू भाषा में 'बैअत करना' कहते हैं । बैअत करना अपने आपको 'बेच देने' को कहते हैं । पुराने जमाने में 'गुलामों' के नाम से मानवों को बेचे जाने का इतिहास भी कई देशों में मिलता है । "बैअत" किया हुआ व्यक्ति गुलाम (दास) की स्थिति में होता है । उसे अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता । सारे अधिकार उसके स्वामी के होते हैं । आध्यात्म में दीक्षित व्यक्ति अपने आपको दीक्षा गुरु को पूर्णरूप से समर्पित करता है जिससे उसके ऊपर गुरु का अधिकार मान लिया जाता है । 'दीक्षा' का शाब्दिक अर्थ है कि 'दि' धातु अर्थात देना है और 'क्ष' धातु अर्थात क्षय करना है अर्थात दीक्षा के समय शिष्य स्वयं को 'दे' देता है और गुरु शिष्य के संस्कारों और कलुषताओं को 'क्षय' या दग्ध कर देता है । अधिकतर आध्यात्मिक उन्नति (तरक्की) का बड़ा सोपान दीक्षा के दिन ही तय हो जाता है चाहे उस समय उसका आभास न हो । गुरुदेव यदा-कदा प्रसन्न होकर दीक्षा के दिन ही आध्यात्म की अंतिम मंजिलों तक पहुंचा देते हैं । आज का शिक्षित वर्ग इसे अनुचित ठहरा सकता है लेकिन आध्यात्म मार्ग में यह अपरिहार्य है ।

श्रीमान् लालाजी महाराज ने तो इस रीति को वैसा ही रखा जैसा कि पूर्व के गुरुओं द्वारा प्रचलित था, परन्तु उनके कुछ वरिष्ठ शिष्यों ने समय के परिवर्तन का ध्यान रखते हुए इसमें संशोधन किए और कहीं-कहीं तो यह परम्परा समाप्त ही कर दी गई । दीक्षा के बाद शिष्य गुरु परम्परा से जुड़ जाता है और इसके बाद उसके लिए वंशावलि (शिजरा शरीफ) का पाठ करना आवश्यक है ।

सच तो यह है कि यह विद्या सीमित तथा उपयुक्त संस्कार वालों के लिए ही देने योग्य है । इसका सार्वजनिक रूप से प्रचार नहीं होना चाहिए । जहाँ सैकड़ों-हजारों की संख्या में सत्संगी लोग देखने में आए, वहाँ उनमें से थोड़े से (इने-गिने) व्यक्ति ही अधिकारी दिखाई पड़े । अधिकतर देखा-देखी आए हुए अथवा परीक्षा लेने अथवा अन्य सांसारिक प्रलोभनों को पूरा करने आए ही व्यक्ति मिलते हैं । उचित प्रकार के अभ्यासी बहुत कम मिलते हैं । कम से कम इन अधिकारी लोगों को तो दीक्षा मिल जानी चाहिए जिससे इनका काम पूरा हो सके और अन्य महानुभावों की भांति लटकते न रह जाएं ।

दीक्षा के समय गुरु शिष्य को सामने बिठलाकर उसके ऊपर के चक्रों को (त्रिकुटी या दशम द्वार तक) अपनी शक्ति के प्रयोग से खोल देता है और अपने गुरु के हाथ में अपने शिष्य का हाथ दे देता है । दीक्षा के समय थोड़ा मिष्ठान बीच में रखते हैं जिसे दीक्षा के समय उपस्थित सज्जनों में बांट दिया जाता है । दीक्षा के समय उस स्थान पर गुरु व दीक्षा लेने वाला व्यक्ति ही उस समय उपस्थित होते हैं, परन्तु गुरु पदवी प्राप्त अन्य व्यक्ति भी वहां उपस्थित रह सकते हैं । इस समय दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति को मुख से बोलकर तथा मन से यह कहना आवश्यक होता है कि "आज दिनांक... को मैंने आपसे दीक्षा ली और मैंने अपना जीवन ईश्वर के प्रेम के लिए समर्पण किया । अब मैं सदा के लिए आपका हो गया । भगवान मुझे इस कार्य में मेरी सहायता करें ।" यह सब शिष्य से तीन बार कहला लेते हैं फिर ध्यान में बिठला कर उसके चक्रों को जैसा ऊपर बताया है, खोल देते हैं । कालांतर में शिष्य धीरे-धीरे स्वयं प्रगति करता हुआ गुरु के संरक्षण में उन्हीं की सहायता से, स्वयं के अभ्यास और प्रयत्न द्वारा प्राप्त चढ़ाई करके ईश्वर की राह में पूर्णत्व प्राप्त करता है ।

नीचे के चक्रों को सहस्रार तक पार करने पर अभ्यासी के लिए दीक्षा प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है । फिर गुरु उसे अपनी शक्ति से त्रिकुटी (दशम द्वार) तक चढ़ा देते हैं फिर उसको स्वयं के अभ्यास द्वारा प्राप्त की हुई स्थिति पर लौटाकर छोड़ देते हैं । बाद में शिष्य गुरु की सहायता से त्रिकुटी को भी पार करके सतलोक में स्थित हो जाता है । संक्षेप में इससे अधिक कुछ नहीं कहा या लिखा जा सकता है ।

दीक्षा उन्हीं अभ्यासियों को दी जाती है जिन पर यह विश्वास हो जाता है कि उन्होंने सहस्रार तक चढ़ाई कर ली है । परन्तु दीक्षा इसके पहले भी दी जा सकती है, ऐसा उन शिष्यों के लिए होता है जो संस्कारी होते हैं । ऐसे शिष्य एकदम प्रगति कर जाते हैं । हमारे पूर्वगुरुओं ने दीक्षित तथा अ-दीक्षित दोनों शिष्यों में कभी भेद नहीं किया । दोनों को समान रूप से ध्यान कराया (तवज्जह दी) और मार्ग पर चलाया । अन्तर (फ़र्क) बस इतना होता था कि दीक्षित शिष्य की गलती आसानी से माफ नहीं होती जबकि बिना दीक्षा लिए हुए शिष्य के लिए कोई बंधन नहीं होता था । हमारे पूर्व गुरु यह भी कहते थे कि जब तक आत्म साक्षात्कार न हो जाय कोई ग्रन्थ न देखें, नहीं तो ग्रंथों में वर्णित नकली हालत आ जायेगी और भ्रम उत्पन्न होगा ।

हमारे लालाजी महाराज के शिष्यों में कुछ ने 'दीक्षा' को 'नाम' देना कहा है । कुछ भी कहें, मतलब समर्पण करना और उसे स्वीकार करना ही मुख्य है । कुछ स्थानों में ऐसी भी मान्यता है कि सामूहिक ध्यान करा दिया गया और बस सबकी दीक्षा हो गई । हमारे एक भाई साहब ने यह रस्म रखी कि तीन सत्संग (सिटिंग) आचार्य द्वारा दिए जाने पर दीक्षा स्वतः हो जाती है । अब हमारे पाठकगण स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं कि कौन से नियम कहां तक उचित हैं । श्रीमान् लालाजी महाराज का जो नियम था, मैंने लिख दिया है । उनके वरिष्ठ शिष्यों ने स्थान व समय की आवश्यकता को समझकर कुछ फेर-बदल किए लगते हैं, जिनके विषय में मुझे कुछ भी कहना अथवा लिखना शोभा नहीं देता क्योंकि मैं इन सबसे छोटा हूँ और सदा ही सबके आशीर्वाद की आशा और कामना करता हूँ ।

आपने नौकरी जयपुर राजस्थान में करी । आप राजस्थान सरकार में अकाउंट अफसर होकर रिटायर हुए । आपने 37 वर्ष नौकरी की व 37 वर्ष ही पेंशन ली । आपने लंबी उम्र पाई व 95 वर्ष की उम्र में जयपुर में देहांत हुआ । आप अत्यंत विनम्र व अमानी भाव मैं रहते थे । कोमल वाणी, नम्र व्यवहार व अत्यंत दयावान थे । आप को श्रीमान लाला जी द्वारा दीक्षा दी गई , श्रीमान् चच्चाजी महाराज द्वारा पूर्णता हुई व  महात्मा डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी साहब (श्रीमान्) द्वारा अध्यात्मिक परवरिश हुई ।

आप लिखते हैं - सन् 1956 के आरम्भ में एक दिन मैं श्रीमान् डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी साहब के पास में बैठा था कि अचानक आपने मुझसे प्रश्न कर दिया, “बाबू हरनारायण ! तुम्हें सल्ब करना आता है ?” मैंने उत्तर में केवल सिर झुका लिया । मुझे इसकी विधि पूर्णतया मालूम थी, परन्तु किसी गुरु पदवी के महात्मा ने मुझे इसका अधिकार नहीं दिया था । मैंने कई वरिष्ठ अभ्यासियों को तथा अध्यात्म के शिक्षकों को सल्ब करते देखा भी था । अतः मैं यह तो कह नहीं सकता था कि मुझे नहीं मालूम । श्रीमान ने मेरा भाव तुरन्त पहिचान लिया और कहा “इसमें क्या है, ऐसे होता है (गर्दन घुमाकर) जब आवश्यक समझो, कर लिया करो ।”

सल्ब करने का मतलब है किसी के शरीर से रोग अथवा कष्ट को निकाल देना । हमारे अध्यात्म में यह साधारण सी क्रिया है । परन्तु इस का खेल करना और दुनियाँ में यह दिखलाना कि देखो हम यह भी कर सकते है इसकी कड़ी मनायी है । इस प्रयोग को अनुचित रूप से करने पर यह शक्ति जैसे दी जाती है वैसे ही वापिस भी ले ली जाती है ।

सर 1958 में श्रीमान कुछ अस्वस्थ रहने लगे । उस समय आपके दोनों सुपुत्र जयपुर से बाहर ट्रांसफर ड्यूटी पर थे । अतः आपके इलाज आदि का भार मुझ पर आया । आफिस जाते समय आपका सारा विवरण लेता । फिर डाक्टर से कह कर दवा लेता । आफिस पहुंच कर दवा श्रीमान के पास भेज देता । लौटते समय सीधा आपकी सेवा में उपस्थित होता । आप संध्या की चाय अधिकतर मेरे ही साथ पीते और प्रतीक्षा करते रहते ।

एक बार जब आफिस से आपकी सेवा में पहुँचा तो आप कुछ अधिक अस्वस्थ होने के कारण अचेत से पड़े थे । मुझे तुरन्त याद आया कि मैं सल्ब करने का अधिकार पा चुका हूँ । तीन चार साँसे खेंचने पर ही आप में चेतना आ गई । पूछा, तुम कब से खड़े हो ? निवेदन किया, अभी आया हूँ । इस प्रकार मुझे कई बार श्रीमान के कष्ट को सल्ब करना पड़ा । अब भी जब आवश्यकता होती है इस कार्य को कर लेता हूँ तथा श्रीमान की याद उस समय ऐसी आती है कि जैसे वे मेरे पास खड़े ही नहीं वरन् मुझ में समाये हुए हों और सल्ब करा रहे हों ।

परमसंत महात्मा श्री हरनारायण जी सक्सेना को श्रीमान लाला जी का 7 वर्ष,  श्रीमान् चच्चाजी महाराज का 23 वर्ष,  व  महात्मा डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी साहब (श्रीमान्) का 34 वर्ष का साथ मिला । साथ ही आपको ठाकुर रामसिंह जी महाराज का 45 वर्ष का साथ मिला । आप बताते थे कि ठाकुर रामसिंह जी अकसर आप के घर पधारते थे और आते ही कहते थे कि गुरु चर्चा हो जाए । व कहते कि आप सम्माननीय हैं क्यों कि आप ने गुरु महाराज के घर तोरण मारा है ।

आप को महात्मा ब्रज मोहन लाल जी का व महात्मा राधा मोहन लाल जी का भी खूब सानिध्य मिला । आप महात्मा राधा मोहन लाल जी को मुंशी भाई साहब कहते थे । आपकी लाला जी महाराज के अन्य शिष्यों से भी खूब मुलाकात थी, जिनमें मुख्य थे –

डाक्टर  चतुर्भुज सहाय जी साहब

श्री कृष्ण लाल जी साहब

श्री श्याम  लाल जी साहब

ठाकुर राम सिंह जी साहब

श्री रामचंद्र  जी साहब शाहजहांपुर

श्री रेवती प्रसाद  जी साहब

श्री शिवनारायण दास जी गांधी साहब

आप परम पूज्य ठाकुर रामसिंहजी व शिवनारायण दासजी गांधी की बहुत ज्यादा तारीफ करते थे एवं कहते थे इन दोनों जैसा निरअंहकारिता, दास  व अमानी भाव अप्रतिम था ।

आपकी अगली पीढ़ी के पंडित मिहीलालजी टूंडला, सरदार कर्तारसिंहजी गाजियाबाद, चारी साहब मद्रास, सेठ साहब गाज़ियाबाद, दीनू भाई साहब लखनऊ, नारायण सिंह जी भाटी जयपुर, रवींद्रनाथजी कानपुर, दिनेश कुमार जी फतेहगढ़ आदि से भी खूब मुलाकात थी ।

आपने अपने दोनों पुत्रों को बाद में सरदार कर्तारसिंह जी गाजियाबाद से दीक्षित करवाया । जबकि आप को महात्मा राधामोहनलाल जी द्वारा 1965 में ही गुरु पदवी प्रदान कर दी गई थी ।

आपने भी छह लोगों को दीक्षा दी व तीन जनों (श्री कौशिक जी, श्री योगेश, व श्रीमती अरुणा) को गुरू पदवी (इजाज़त ताअम्मा) लिखित रूप में प्रदान की ।

आप इतना जाप करते थे कि दिन में शायद ही कभी खाली रहते थे । दूसरों के लिए भी खूब जाप करते थे । जाने कितने लोगों को सहायतार्थ मनिआर्डर भेजा करते थे अपनी पेशंन से । वे हमेशा गुरु भाव में ही रहते थे वे अपने को हमेशा छोटा एवं तुच्छ ही मानते थे । साफ कपड़े पहनते थे व बहुत सलीके से रहते थे । आपको महात्मा रवींद्रनाथ जी कहते थे कि आप अपने इलाके के कुतुब हैं । आपने अपने अनुभवों से कई पुस्तक लिखी व छपवाईं, मुख्य पुस्तकों  सूची यह है –

1. साक्षात्कार का रहस्य

2. यादें

3. आध्यात्मिक संकलन (दो भाग)

4. नक्शबंदिया सिलसिले के बुजुर्ग व उनकी समाधियां

5. स्वस्थ सुखी दिव्य जीवन

आपके जीवन काल में मार्च महीना मुख्य रहा । 20 मार्च 1908 को जन्म, 24 मार्च 1928 को लालाजी महाराज से दीक्षा, व 95 वर्ष की उम्र में 4 मार्च 2003 में ब्रह्मलीन ।

आप गुरुलोक में अपने गुरुदेव के साथ मुक्त अवस्था में निवास कर रहे हैं । कृपा मांगने वालों पर अवश्य ही कृपा करते हैं । आप लाला जी महाराज के शिष्यों में एक व अकेले थे जिन्होंने 21वीं  सदी देखी एवं आपके साथ ही लाला जी महाराज के शिष्यों का महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हुआ ।



                                                                           


Disciples:

Names of his disciples are

Yogesh Chaturvedi

Rajni Chaturvedi

Late OP Kaushik

Arunlata Tharwan

Man Singh

Himanshu Vikram


Rama Saxena

If anyone else missing, please let us know through feedback section on next page

His real younger brother Om Prakash ji was also a saint. please see the link below:

https://www.youtube.com/watch?v=SNXn7mgwL4Y 
(Copy and paste this link on Youtube).

​                               ​Dr. Harnarayan Saxena


​Visit mobile friendly site at     http://www.harnarayan-saxena.com

Teachings:

His principles provide the foundation for effortless spiritual growth.

1.  God is the supreme power with no name or form, and you can choose a name of your liking.

2.  To seek Him, you need not renounce either the world or the married life; you do not need to live a secluded life nor you need to become a wanderer. Those living with family and leading a "normal" life can still reach God.

3.   In order to attain self-realization, you must find someone who has already attained self-realization and seek his guidance.

4.   Bring inner happiness into your life, for it is a divine virtue.

5.  Gyan (Knowledge) brings peace; you will not find it outside. It is within you, so you will need introspection and Satsang to be at peace.

6.  You should continue to devote most of your time to your daily activities. However, while practicing Satsang, you should keep your mind clear of all worldly concerns.

7.  As a Satsangi (seeker), two activities are very important for you - first, earning an honest living and second, keeping busy with work.

8.  Knowledge is infinite. If your Guru cannot take you to your goal, then seek the guidance of another Guru. However, after finding an Atma-Gyani Guru (self-realized person), you should stay with him.

9.  Do all worldly work with a spirit of service, not to rule or to own.

10. Live in this world as a guest. Believe that someone else owns everything in this world. Leave "me and mine," and learn "you and yours".

His first principle promotes harmony amongst religions and ideologies. The focus according to Him ought to be elevated to a higher goal - "connecting to a higher power". The name or form we choose may be our own. It is not about what name or form is better; the goal ought to be realizing, knowing, experiencing, and reaching our God.

Self-realization could be the goal, and we can help each other in that process - a common goal for the human race and a way we all could service each other and hence, serve the human race.

If we look at most conflicts and wars in today's world, the majority of them are in the name of religion. Religious orientation becomes a reason for conflicts, and the fight ensues to prove one's religion is better than the other. All of this is due to ignorance; we fundamentally do not understand God.

First, there are many names associated to God - Jesus, Jehovah, Ishwar, Ram, Krishna, Mohammad, Buddha, and the list is potentially very long. Second, we all associate a form (a physical body) to each of these names, so there are many names and forms.

Each religion has its own belief and faith. It typically includes a name and a form of the super power, the omnipotent, the omnipresent, and the ultimate source of energy. This subject can get far more complex; for example, some refer to the formless God with no physical description.

He stated, "God is the supreme power with no name or form, and you can choose a name of your liking". Based on this principle, we respect all religions.

Let's take an example. In a family, the same person is referred to as a father, a husband, an uncle, a brother, a son, etc. The reference being different doesn't make the person different. Also, the same person being referred differently doesn't cause any conflict because we know the person. The conflicts arise due to the ignorance.

If we are really pursuing peace - we want peace for ourselves, our family, our community, and our world - we then need to get rid of ignorance. Let's know our God and realize our belief through self-realization. Once you achieve that, there will be no conflict.

One of his core principles is that living with family and leading a "normal" life, you can still reach God. Guru Maharaj stated that if you are busy earning a living and have a family to take care of, that should not stop you from progressing spiritually towards self-realization.

Buddha emphasized balance, but to achieve the goal, a celibate life and service through monasteries became popular. Priests and nuns serve the Christian church through a similar lifestyle change and devote their lives to service. Such devotion is divine, but this started a belief that real service and self-realization requires such renunciation. Shankaracharya promoted tyag, or leaving worldly possessions, among Hindus.

So, what about us, the normal people, how will we find peace and achieve spiritual progress? If we wait till we will be free of worldly (and familial) duties to start the spiritual journey, that wait might be as long as our life, as worldly desires and demands (on our time) continue to pile up continuously.

Scriptures and history provide examples of many sages and saints who achieved the state of self-realization, living a normal family life. He stated that it is as well achievable today and illustrated it in His own life.

According to him, the decision to give up worldly possessions and give up family life is not easy, but to follow it through is even more difficult. There might have been a time in human history when celibacy and a 'harder' life devoted to service was a requirement. However, it may not be as relevant today, especially in light of such power games, temptations, and scandals coming from the temples, mosques, and churches.

What has to be given up is our mind's focus and attachments towards worldly possessions. Those who give up family life and decide to serve God soon find themselves attached to another set of people, possessions, and activities (of service).

The problem is "Forgetting God and becoming attached to worldly possessions," has to be addressed. The physical act of giving up worldly possessions doesn't necessarily guarantee a future free of such temptations. Guru Maharaj stated that as every action has a reaction, the fact that you renounce the world, the higher the probability that temptations will return with a vengeance. However, the temptations will have a different setting and may have morphed into an indistinguishable form.

Corporate world and governments today utilize consultants and advisors to leverage expertise or prior experience in specific areas. Typically, a consultant or advisor has "been there" and has "done that" before.

He stated that if you want to achieve self-realization, then meet someone who has. Your journey could be less painful or quicker if you leverage the experience and expertise of someone else. The learning could be through imitation and observation. Confucius wrote, ''By three methods we may learn wisdom: First, by reflection, which is noblest; second, by imitation, which is easiest; and third by experience, which is the bitterest.''

Unfortunately, finding the right consultant or an advisor is very difficult, and finding a person who has achieved self-realization is even more difficult.

Even if we found one, how will we recognize and confirm that we are not making a mistake? He wrote many books as well. If we have a strong desire and if we persevere, the search will be successful and He will appear in your life. Persistence is the key in this endeavor. There are techniques to evaluate and confirm that you have found one. At the high level, one key element of such an evaluation is how you feel when you are meeting the person. If you feel devoid of temptations and desires and forget all misery and pain, you may have found one. The person's behavior may also provide a good measure. But in today's world, it is difficult to make out the actor from the real one.

Inner happiness is another good metric for spiritual progress.

Everyone is looking for happiness through wealth, knowledge, possessions (house, car, etc.), and continues to strive towards being healthy, wealthy, and wise. The happiness of family and friends becomes important because your own happiness depends on their being happy. In broader terms, to be happy yourself, the world in your immediate vicinity needs to be happy. However, the happiness described above is happiness achieved by the virtue of physical possessions and hence, it is primarily based on our physical senses.

Inner happiness is beyond the happiness achieved through worldly possessions. Happiness achieved through worldly possessions turns into misery and unhappiness when the physical possession is lost.

Inner happiness is not based on how much wealth, knowledge, status, or power is possessed by the individual. Inner happiness grows with the spiritual growth of the individual. Inner happiness is a good measure of progress; as we move closer to divinity, the consistency and depth of inner happiness continues to increase.

He clarified for those who think that spiritual progress requires a very serious amount of time; according to Him, it is not important how much time is spent in prayers, kirtan, Satsang, pooja, meditation, or in service, it is the improvement in the level of inner happiness that is important. If the level of inner happiness is not improving, the path or the Sadhana that is being pursued may not be very effective. So, bring inner happiness into your life, for it is a divine virtue.

Knowledge brings peace. However, it is not merely reading the scriptures that will lead to peace. Knowledge is embedded in the scriptures, and it is important to read the Bible, Koran, Vedas, Upanishads, and other scriptures to achieve knowledge that leads one to become a scholar. It doesn't necessarily lead to peace. Internalization of this knowledge, realizing the depth, and experiencing the principles is required to achieve peace.

He emphasized on introspection and Satsang. Peace and knowledge is within us, while we are trying to find it outside. Like happiness peace cannot be associated with the physical possession of knowledge. Strive towards inner happiness and inner peace. It is internalization of knowledge that leads to inner and more permanent peace.

Peace is achieved through the exploration within us, through inwards looking Sadhana, or Satsang.

He presented a unique system of meditation towards achieving inner peace.

He emphasized on living a family life and understood that to mean a significant part of the day would be devoted to just bringing bread to the table. He also proposed that less than an hour a day should be spent on spiritual progress. However, it becomes important to keep that time clear of worldly worries.

In today's society, the time and effort that can be spent on Sadhana (or spiritual growth) is limited. So, He stated that over 23 hours a day should be invested towards worldly progress and family duties. This time should be utilized in earning an honest living, keeping a healthy physical body, and improving the physical and financial health of the family and community.

However, half an hour in the morning and in the evening should be spent consistently on spiritual progress. This time should not be cluttered with worldly activities; this should be devoted entirely to spiritual progress alone.

This uncluttered focus on one thing at a time provides for progress towards worldly as well as spiritual goals, in a unique balance.

This principle also states that thinking of worldly situations and issues at church, mosque, or temple will result in not so effective visit. Those who use these places as social get-togethers fail to realize the spiritual progress that could have been achieved. This applies to all such endeavors like mantra, jap, kirtan, Satsang, bhajan, etc. If the mind is wandering elsewhere, the mere physical activity may not be very effective in leading to spiritual progress.

He emphasized on utilizing the time spent on any religious or spiritual activity to be uncluttered from all worldly concerns. Spend the majority of your time fulfilling worldly duties, but when you take a break from it, make it a complete break. While engaged in day-to-day worldly activities, regular work, and family duties, focus and hence, don't clutter them with other distractions, including spiritual endeavors.

A consistent brief meditation session every morning and evening can positively impact our body, mind, and spirit and if uncluttered from other distractions, it could be more effective than any other approach to self-realization.

The goal of self-realization is very important. A guide to facilitate the progress is desirable. During the journey, the mind continues to play its usual tricks; doubts and disbeliefs happen throughout the process.

He emphasized on being very diligent and careful in identifying the Guru. The Guru, like a consultant or an advisor, could significantly reduce the time and effort required for the journey. The Guru brings experience which will highlight "what not to do" as well as "what to do."

He clarified that if your current Guru can only guide you through a certain level, there is no harm getting another guide for the rest of the journey. But care must be taken, so this decision is not frivolously approached; especially when doubts and disenchantments may be part of our phase in the journey. On the other hand, based on real experience, an informed decision can be made regarding the current Guru's inability to guide the journey beyond a certain point. Also, there are times when the Guru has transcended his physical body and the disciple's ability to get direction and guidance may require another physical form. In that situation, a change may be considered. However, the Guru is not just a physical body. Self-realized (Atma-Gyani) Guru will continue to help through the journey, either in person or not. However, if you haven't reached the state that you can stay connected with Guru's divine powers, then you may need to find another Guru for the rest of the journey. Knowledge is infinite. If your Guru cannot take you to your goal, then seek the guidance of another Guru. However, after finding an Atma-Gyani Guru, you should stay with him.

Nirvana is thought to be associated with "giving up the world". Many believe that since the world is causing misery and pain, "giving up the world" will allow them to reach nirvana and reach out for eternal peace.

One of the basic issues is ownership and the attachments caused by owning worldly possessions. For example, if you own a treasure, you may lose your sleep in trying to keep it safe. If the same treasure is owned by someone else and you are just a caretaker, you will do everything to keep it safe and do all the associated duties, but chances are you may not lose sleep over it.

We are all guests with a limited lifespan, on this planet Earth. We are very fortunate that we have taken a human form, where we have a unique opportunity to unravel the complex phenomena and achieve self-realization.

For example, when we travel and go on vacation, we would stay in a hotel or at a rented or borrowed place, or stay with a relative or a friend. If we were not allowed to bring anything and not allowed to take anything back, it would be like our lives. If the vacation is a long one, we get attached to the scenery, lifestyle, and luxuries and sometimes forget that all of it has to be given up.

If there is a skill that we need to learn, it is to live a life as if we were on vacation. Enjoy, have fun, but don't get attached to it as this is not permanent.

He personified the maxim, "The more spiritual a person is, the more he is human" in his daily life, and was free from any kind of pose or pretension. His heart was flowing with love and service for everyone. Never sparing himself in paying due attention to anyone who sought his help, he had all of the qualities of an ideal Guru and was habitually found in a meditative mood. Perhaps his greatest quality was that he never saw a difference between himself and others. He was not the least obsessed by notions of distinction that he himself was the Enlightened One, while others around him were languishing in the darkness of ignorance. His firmness of self-possession could not be shaken under any circumstances, and he was never perturbed. Tranquility was writ large on his face. He lived the life of a family man fully and unshakably, with a daily life marked with normalcy. He set an excellent example of how to combine spiritual idealism with domestic life. Serving his wife and children to the last, he mindfully attended to all domestic duties.​


His younger brother Om Prakash ji was also a saint. please see the link below:


https://www.youtube.com/watch?v=SNXn7mgwL4Y

Paramsant Mahatma Shri Harnarayan Ji Saxena


Paramant Mahatma Shri Harnarayan Ji Saxena was born on 20 March 1908 in Pidawa Rajasthan. Then this region was called Rajputana. His childhood was spent in Tonk Rajasthan. His father used to work in Tonk region. He got a decent religious atmosphere of a Kayastha family.


​He writes - After passing high school in Tonk (Rajasthan) in 1925, I went to study at Kanpur Sanatan Dharma College. My brother Babu Anand Swaroop Ji used to live there, there was an old practitioner among those who went to the service of Chachaji Maharaj. In an evening of October 1925, he also took me with him and made me sit in front of Chachaji Maharaj. Introduced a little bit. Chachaji talked to me and then I talked to his family members. When returning Chachaji said to me when you have time, come to meet. I was only 17 at the time. What could I understand about Chachaji . But due to some attraction I started going to him. A few days later he told me to practice. Commanded to do it daily in the morning. By his mercy, this practice has been going on since then and will continue for the rest of his life. I had no direct family relations with the family of Lalaji Maharaj, but my revered brother Babu Anand Swaroop ji had. Despite being a distant relationship, my spiritual connection later became close to the family.


Brother of our revered Guru Mataji (Respected wife of Mahatma Shriman Lalaji Maharaj) was an inspector of the Excise Department. He asked for consultation with Lalaji Maharaj for his daughter, and Lalaji Maharaj told my name. It had been almost two years since I went to him. Luckily this relationship was confirmed and the marriage was concluded in February 1928, in which Lalaji Maharaj played the leading role. He was present at all the wedding ceremonies (Rasmo revaz) and gave the directions. In this way, I also had a family relationship with the Guru family as married into the family.


Then in March 1928, when Shri Lalaji Maharaj came to Kanpur, Pujya Bhai Sahab Parmant Babu Brajmohan Lal Sahab presented me in front of Shri Lalaji Maharaj for initiation and requested him to initiate me. I had the privilege of being in the service of Chachaji Maharaj for many years in my student life (1925–1928). Later also, I kept going from time to time in his service. After Nirvana in 1931 of Gurudev Shriman Lalaji Maharaj, for nearly 16 years, Chachaji continued to feed all the satsang family spiritually and my contact with Chachaji remained continued. I got all the guidance in this path from him and still get it.


​Mahatma Ramchandra ji believed in religious books of all faiths. He respected the great men of every religion, read and listened to their speech and respected their words very much. Mahatma ji continued to persevere on the order of his Gurudev Huzur Maharaj for the lifetime and that order was that "one should perform duties according to the religion in which he is born." So although his Gurudev according to the Sharah (Karma-kand) of Islam religion was a muslim, Lalaji used to follow Hindu customs. Mahatma ji neither kept fast and did not offer namaz. Mahatma did not oppose taking his picture or keeping it in ones house, but he was opposed to worshiping. Mahatma ji did not like others to touch his feet but did not stop the students who wanted to touch the feet, because this practice has been prevalent in the Hindus so long that the Gurus are revered by touching their feet.

He had great respect for the previous gurus of his spiritual dynasty. He used to say that the greatness of our dynasty is due to our ancestors. He always prayed for them and on getting success in any worldly or religious work, thanked them.

He knew Siddhi Shakti but he had no show off. He was not in favor of amulets or tabiz even though he also knew this science and among his beloved disciples he helped many and allowed them to give amulets. 

He used to insist on being virtuous. He said that until the behavior is completely corrected, there is no self-realization. He did not like much practice (Riyazat) and was in favor of reading the texts. Mahatma Ji said that the practice of heart (Zikr Khafi) is the highest, it helps the body, mind and soul. This is the real practice to keep the heart under control and keep nafs in order.

He had great faith in prayer (Dua) but he did not approve of praying (Dua) for himself but for the benefit of the world. He was always ready to pray for others.

Mahatma ji said that every guru should be a good teacher first, but a teacher should be very careful. Once you are Guru, you should completely submit yourself to your Guru.

Gurudev (Huzur Maharaj) of was so happy that he gave all izazats to him. It is also said that he blessed that, this tradition of our Naqshbandiya silsila will last for seven generations in Lalaji's family. At this time, their fourth generation has already arrived and their members are initiated in this saint tradition. You all have seen this directly in Fatehgarh Bhandara, Kanpur Bhandara and Jaipur, Ghaziabad and Secunderabad Bhandara etc. 

Shriman Lalaji Maharaj, Shriman Chatchaji Maharaj (Kanpur) and Shriman Chhote Chchaji Maharaj (Jaipur), these three saints, were initiated by Bade Guru maharaj, the supreme saint Sadhguru Maulvi Fazal Ahmed Khan Sahab. When Dada Guru Maharaj gave izazat to Lalaji, then Lalaji took care of the entire work. In this way, the work of completing the other disciples of Shriman Chachaji Maharaj, Chote Chachaji Maharaj (who was still younger during the time of Guru Maharaj), was also done by Shriman Lalaji Maharaj. The elder Guru Maharaj went to heavenly abode, then according to his orders, Shri Lalaji Maharaj completed both of brothers in sprituality and gave the Guru title.

There was another disciple of our grandfather Guru Maharaj's Gurudev - Hazrat Janab Khalifa Ji Sahab (you are remembered by the same name in that satsang) whose auspicious name was Param sant Sadhguru Haji Maulvi Abdul Ghani Khan Sahab. As a child, he lived with his father in Farrukhabad. His field also (spiritual) was no different from that of Shriman Lalaji Maharaj. These four spiritual families also got mixed up together. Lalaji Maharaj got the children of both his and his younger brothers to be blessed by Maulvi Abdul Ghani Khan Sahab. Thus he was the initiation guru of all the brothers of the family. When Huzur Maulvi Sahab urged , then Lalaji started giving initiation. This is a classic example of respect established by our revered Gurudev.


Shri Chachaji Maharaj did not give initiation to any body during the lifetime of Shri Lalaji Maharaj. He started the initiation work only after the death of Shri Lalaji Maharaj. 

My guess is that the bonding of our Mr. Maulvi Saheb's family was more in these three families, rather than closeness to Muslim families.

The concrete foundation laid by Huzur Maharaj for this work was certainly unique. He completed only Shri Lalaji Maharaj among his disciples and left all the work of spiritualism and other dignities to Shri Lalaji Maharaj. I have explained many incidents of my knowledge in my book 'Yaden'.

In 1925, I came to Kanpur and in 1928 I was initiated by Mr. Lala ji. Finally, I have been introduced and contacted by almost all of its branches spread by other senior disciples of Mr. Lalaji. 

The process of meditation can be made simple by making Shaktipat. Those who despise this tradition by thinking of Muslim dignitaries or want to avoid it, are doing their great harm due to narrow thoughts and deprive themselves of the benefits they can get. Therefore, this feeling is to be completely discarded. Mankind is one and there is no discrimination with God in it.


in some branches tradition of bayat has been abolished. After initiation the disciple joins the Guru tradition and after that it is necessary for him to recite the Vanshavali (Shijra Sharif).

Harnarayan ji did  job in Jaipur Rajasthan. He retired as an account officer in the Rajasthan government. He worked for 37 years and got pension for 37 years. He attained longevity and died in Jaipur at the age of 95. He used to live in a very humble  sense. He was gentle, and very kind. He was initiated by Shriman Lala ji, completed by Shriman Chachaji Maharaj and spiritual upbringing by Mahatma Dr. Krishna Swaroop Ji Sahib.

He wrote - One day in the beginning of 1956, I was sitting next to Dr. Krishna Swaroop Ji Sahab then suddenly he questioned me, "Babu Harnarayan! Do you know how to Sulb? ”I bowed my head in reply. I fully knew its method, but no Mahatma of any Guru position had given me the right. I had seen many senior practitioners and teachers of spirituality doing the same. So, I could not say that I do not know. He immediately recognized my sentiment and said, "What is in it, this happens like this (by twisting the neck) when necessary, do it."

To Sulb means to remove disease or suffering from one's body. It is a simple action in our spirituality. But it is forbidden to play this as a game and show in the world that we can do this too. If this experiment is done improperly, this power is taken back as well.

Paramantant Mahatma Shri Harnarayan Ji Saxena got 7 years of closeness of Lala ji, 23 years of Chachaji Maharaj, and 34 years of Mahatma Dr. Krishnaswaroop Sahib (Shriman). He also got the opportunity of meeting Thakur Ramsinghji Maharaj for 45 years. Harnarayan ji used to say that Thakur Ramsingh ji used to visit his house often and said that Guru mahima should be discussed. And used to say to me that you are honorable because you have wedded into the Guru Maharaj's house.

He got a lot of closeness with Mahatma Braj Mohan Lal Ji and Mahatma Radha Mohan Lal Ji. He used to call Mahatma Radha Mohan Lal Ji Munshi Bhai Sahab. He also had a lot of closeness with other disciples of Lala Ji Maharaj, the main ones were -

Dr. Chaturbhuj Sahay Ji 

Shri Krishna Lal Ji

Mr. Shyam Lal Ji Sahab

Thakur Ram Singh Ji Sahab

Shri Ramchandra Ji Sahab Shahjahanpur

Shri Revathi Prasad Ji Sahab

Mr. Shivnarayan Das ji Gandhi Sahab

You used to praise Param Pujya Thakur Ramsinghji and Shivnarayan Das ji Gandhi very much and used to say that the spritual values of these two were unmatched.

Your next generation Pandit Mihilal ji Tundla, Sardar Kartarsinh ji Ghaziabad, Chari Sahab Madras, Seth Saheb Ghaziabad, Dinu Bhai Sahab Lucknow, Narayan Singh Ji Bhati Jaipur, Ravindranath ji Kanpur, Dinesh Kumar Ji Fatehgarh etc. were also close to Harnarayan ji.

He got two sons who were initiated by Sardar Kartarsingh ji Ghaziabad. While he was conferred the Guru title by Mahatma Radha Mohanlal ji in 1964 itself alongwith Ravindranath ji on the same day, but he preferred to present his sons to Sardar Kartarsingh ji Ghaziabad .

He also initiated six people and gave Guru Padavi (Ijazat Taamma) in writing to three people (Shri Kaushik ji, Shri Yogesh, and Shrimati Aruna). Kaushik ji is not alive now.

He used to chant so much that he was rarely free during the day. Used to chant a lot for others as well. He helped many people by sending the money order for the help of their living. He always remained in remembrance, he always considered himself small and insignificant. Used to wear clean clothes and lived very nicely. Mahatma Rabindra nath ji used to tell him that he is the Qutub of his area. He has written and published many books from his experiences, this is the main books list -

1. The secret of the realization

2. Yaden or Memories

3. Spiritual compilation (two parts)

4. Elders of the Naqshbandiya connection and their shrines

5. Healthy happy divine life

In his lifetime, the month of March was important. Born on 20 March 1908, initiation from Lalaji Maharaj on 24 March 1928, and left body on 4 March 2003 at the age of 95.

He is residing in Gurulok with his Gurudev Lalaji in a mukt state. Those who ask for blessings are definitely answered. he was one and only among the disciples of Lala ji Maharaj who saw the 21st century and with him the important chapter of Lala ji Maharaj's disciples closed.




His Disciples:

Names of his disciples are

Yogesh Chaturvedi

Rajni Chaturvedi

Late OP Kaushik

Arunlata Tharwan

Man singh

Himanshu Vikram

Rama Saxena

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