34. हज़रत मौलाना शाह फ़ज़्ल अहमद ख़ाँ रायपुरी
आपकी कायमगंज में है ।
जीवन चरित्र
जन्मभूमि और माता-पिता
भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश राज्य के जिला फर्रुखाबाद में एक तहसील कायमगंज है । इसी तहसील के कस्बा रायपुर में हुज़ूर महाराज का जन्म 1847 ई॰ में हुआ था । यहीं आप का पालन-पोषण हुआ तथा कुछ वर्षों को छोड़ कर, जबकि वह जीविकोपार्जन के लिए फर्रुखाबाद में रहे, आप का अधिकांश जीवन यहीं रायपुर में ही व्यतीत हुआ । जीवन काल के अन्तिम समय में इसी स्थान पर आपने विसाल फ़रमाया (पार्थिव शरीर त्याग दिया) ।
आपके पूज्य पिताजी का शुभ नाम ज़नाब गुलाम हुसैन साहिब था, जो कश्मीर के महान सूफ़ी सन्त हज़रत मौलाना वलीउद्दीन साहिब (रहम॰) से बैअत थे (गुरु दीक्षा ली थी) और उनके खलीफ़ा भी थे । वह फौज में 'निशान बरदार' के पद पर कार्यरत थे ।
हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी हज़रत मौलाना अफ़जल शाह नक़्शबन्दी मुजद्दिदी (रहम॰) से बैअत थीं । हजरत मौलाना शाह साहिब जो मौलाना अबुल हसन नसीराबादी (रहम॰) के मुरीद व खलीफ़ा थे बड़ी मुहब्बत से पूज्य माताजी के क़ल्ब (हृदय) की तरफ तवज्जोह देते थे और उनके विषय में फ़रमाते थे कि मेरी बेटी 'मशीयते एज़दी' तब्दील कर देती है (वह ईश्वर की इच्छा और उसका विधान भी बदलने की क्षमता रखती है) । विश्व के विभिन्न धर्मों में ऐसी घटनाएं सुनने और देखने को मिलती हैं जहाँ ईश्वर अपने परम भक्तों की फरियाद (विनती) और आग्रह को स्वीकार करने के लिए वह अपना दैवी विधान भी बदल देता है ।
इसी सन्दर्भ में हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी की परम भक्ति और ईश्वर प्रेम के विषय में एक भजन की निम्नांकित पंक्तियाँ याद आती हैं -
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलने देखा ।
उनका मान घटे घट जाये, जन का मान न टलते देखा ।।
पूज्य माताजी इन्तिहा दर्जे की नेक, पारसा (संयमी) और सीधी थीं । उनके स्वभाव में अपने-पराये की भावना छू तक नहीं गई थी और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (सारा विश्व ही कुटुम्ब के समान है) - इस सिद्धांत को उन्होंने अपने जीवन में पूर्ण रूप से उतार लिया था । उनके स्वभाव के इस अलौकिक गुण की प्रशंसा करते हुए हुज़ूर महाराज के गुरु भाई हजरत मौलाना हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब अपनी एक घटना सुनाया करते थे । एक दिन हुज़ूर महाराज के छोटे भाई हज़रत मौलवी विलायत हुसैन खाँ साहिब और हज़रत मौलाना हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब दोनों एक परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए जाने लगे । दोनों ने अलग-अलग पूज्य माताजी से अर्ज़ किया, 'माई, मेरे लिए दुआ कीजिएगा' । उन्होंने फ़रमाया, 'अच्छा- इन्शा अल्लाह मैं दुआ करूंगी' । जब दोनों परीक्षा देकर वापस आये तो पहले ज़नाब हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब ने दरियाफ़्त किया- माई ! क्या आपने मेरे लिए दुआ की थी ? उन्होंने फ़रमाया, 'हाँ मैंने तेरे लिए दुआ की थी', लेकिन जब उनके लड़के हुज़ूर महाराज के छोटे आई साहिब ने उनसे दरियाफ्त किया तो उन्होंने साफ बतला दिया कि जब मैं तेरे लिए दुआ करने को होती तो तेरी जगह उसका (ज़नाब हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब का) नाम मेरी ज़ुबान पर आ जाता था । इसलिए मैं उसके लिए तो दुआ करती रही लेकिन तेरे लिए दुआ करना भूल गई । यह थी उनके प्रेम की व्यापकता कि अपने सगे लड़के के लिए दुआ करना भूल गईं, लेकिन ज़नाब हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब के लिए बराबर दुआ करती रहीं जिनको वह अपने सगे लड़के से ज्यादा प्यार करती थीं ।
उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि हुज़ूर महाराज के पूज्य माता-पिता दोनों ही परम सन्त तथा उच्च कोटि का आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले आदर्श मानव थे । उनकी पूज्य माताजी परम सन्त होने के साथ ही साथ श्रेष्ठ मानवता की जीवन्त प्रतिमूर्ति ही थीं । अत: इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसी परम सन्त आदर्श माता की कोख से जन्में हुज़ूर महाराज ने धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता तथा सर्व धर्म समन्वय के क्षेत्र में जिस नूतन आध्यात्मिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, वह उनके परिवार के उत्कृष्ट आध्यात्मिक संस्कारों के अनुरूप ही था ।
हुज़ूर महाराज के पूज्य सत गुरुदेव
हज़रत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब (रहम॰)
कायमगंज जिला फर्रुखाबाद (उ.प्र.) में एक महान सूफी सन्त हज़रत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब मऊरशीदाबादी कायमगंजी (रहम॰) निवास करते थे । कायमगंज को पुराने समय में मुऊरशीदाबाद कहते थे । इसलिए ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) के नाम के आगे मऊरशीदाबादी भी लिखा जाता है ।
आप फारसी और अरबी के महान विद्वान थे और इन भाषाओं के कठिन से कठिन ग्रन्थ आपको कंठस्थ थे । आप फारसी के काव्य ग्रन्थ 'गुले क़िश्ती', 'बदरचाह', 'मसनवी हलाली' इत्यादि को बड़े रोचक ढंग से पढ़ाते थे । धर्मशास्त्र और शरीअत से सम्बन्धित तथ्यों की व्याख्या करने में आपको पूर्ण दक्षता हासिल थी । क़ुरआन शरीफ को शुद्ध उच्चारण के साथ पढ़ने की कला में भी आप पूर्ण दक्ष थे । इस विषय पर आपने कई पुस्तिाकाएँ लिखी हैं । आपने दो दीवान (कविताओं के संग्रह) और एक काव्य ग्रन्थ 'महारबा काबुल' लिखा है । गद्य लेखन में भी आप की योग्यता अद्वितीय थी । आपने एक पुस्तक 'फ़तवाए अहमदी' लिखी है । आप धर्म पालन में बड़े सख़्त और सुन्नत (वह कार्य जो पैगम्बर साहिब सल्ल॰ ने किया हो) के अनुयायी थे । आप अक्सर फ़रमाते थे कि सुन्नत का अनुकरण करने से आदमी महबूब (ईश्वर और हज़रत पैगम्बर साहिब सल्ल॰ का प्रेम पात्र) हो जाता है ।
ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पास जो लड़के पढ़ने आते थे उनमें हुज़ूर महाराज भी थे जो बहुत ही तीव्र बुद्धि के तथा आज्ञाकारी स्वभाव के थे । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के परिवार में केवल उनकी धर्मपत्नी और उबका एक लड़का था जिसका नाम अब्दुला था । जब यह लड़का 15-16 वर्ष का हुआ तो अचानक उसकी मृत्यु हो गई । इस विरह से सब को बड़ा दुःख हुआ, विशेष रूप से लड़के की माँ को । वे दिन-रात उसकी याद में रोया करती थीं । एक दिन ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने अपनी पत्नी को समझाया कि रोने से कुछ फायदा नहीं, जिस हालत में परमात्मा ने रखा है, उसमें खुश रहो । वह बोलीं, 'मैं बहुत कोशिश करती हूँ मगर सब्र नहीं आता, बराबर उसकी याद आ-आकर रुलाती है ।' आपने कहा, 'तुम फज़्लू (हुज़ूर महाराज) को ही अपना बेटा क्यों नहीं समझ लेती?' बस ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की यह बात सुनते ही उनकी धर्मपत्नी के दिल की कुछ ऐसी कैफियत हो गई कि वह उसी दिन से हुज़ूर महाराज को अपना बेटा मानने लगीं और हुज़ूर महाराज भी उनको अपनी सगी माँ मानने लगे । यह भी एक संयोग की बात थी कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पुत्र 'अब्दुल्ला' हुज़ूर महाराज के हम शक्ल थे (दोनों की शक्ल एक-सी थी) । यह जानकारी इस लेखक को हुज़ूर महाराज के सगे पोते पूज्य ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने अपने एक पत्र में देने की कृपा की थी ।
परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी के विषय में पूज्य चच्चा जी महाराज ने एक बार कानपुर सत्संग के अवसर पर हुज़ूर महाराज के जीवन की कुछ घटनाएं सुनाते हुए यह फ़रमाया था कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब अपने विसाल के वक्त अपनी धर्मपत्नी को हुज़ूर महाराज के ही सुपुर्द कर गये थे । वह उनके शरीरान्त के बाद वहीं कायमगंज में अपने नवासों के यहाँ रहने लगी थीं । यद्यपि उनके नवासों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी लेकिन वह उनके मकान के सामने ही एक फूस की झोंपड़ी डलवा कर रहती थीं । उनके भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था हुज़ूर महाराज ही अपनी ओर से करते थे । उनके लिए सतनजा अनाज खरीद देते थे (जो उनको पसन्द था) और छठे महीने में उनके लिए कपड़े बनवा देते थे । वह इतना सादा भोजन करती थीं कि उस सतबजा अनाज की खुश्क रोटियाँ ही अक्सर खा लेती थीं । साथ में कोई सब्जी और दाल भी नहीं लेती थीं । परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी के विषय में पूज्य चच्चाजी महाराज का उक्त कथन इस लेखक को उनके शिष्य श्रीमान बृजनारायण जी मेहरोत्रा की दैनिक डायरी दिनांक 13-11-42 में पढ़ने को मिला था । जब तक वह जीवित रहीं हुज़ूर महाराज एक सगे पुत्र की तरह उनकी सेवा बड़ी निष्ठा के साथ करते रहे ।
ज़नाब खलीफ़ा जी के स्वभाव में बेहद परदापोशी थी । कायमगंज के लोग उन्हें फ़ारसी और अरबी पढ़ाने के लिए एक विद्वान मौलवी शिक्षक के रूप में तो जानते थे और यह भी जानते थे कि वह सज्जन और ईश्वर भक्त हैं । लेकिन लोगों को यह नहीं मालूम था कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब सांसारिक विद्याओं के साथ ही साथ अध्यात्म विद्या के भी अथाह समुद्र हैं । हुज़ूर महाराज ने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का संक्षिप्त जीवन-वृतान्त तथा उनके उच्चतम आध्यात्मिक जीवन की कुछ घटनाएँ एक पुस्तिका में प्रकाशित की हैं । इस पुस्तिका का नाम है-'जमीमा हालात मशायख़ नक़्शबन्दिया, मुज़द्दिदिया, मज़हरिया' जो हुज़ूर महाराज द्वारा उर्दू भाषा में लिखी गई है । इस ज़मीमा के विषय में हुज़ूर महाराज ने इसकी भूमिका में लिखा है कि शुरु में आपका इरादा नक़्शबन्दिया सिलसिले की गुरु परम्परा के हालात, जो आपने एकत्र किये थे, छपवाने का था । उसी बीच आपको यह मालूम हुआ कि एक बहुत ही उपयुक्त पुस्तक 'हालात मशायख़ नक़्शबन्दिया मुज़द्दिदिया' मौलाना मुहम्मद हसन साहिब (निवासी कोटा, कीरतपुर, जिला बिजनौर) ने लिखी है । अत: उन्होंने अपनी पुस्तक छपवाने की जरूरत नहीं समझी, परन्तु उस पुस्तक में नक़्शबन्दिया सिलसिले के शज्रः (गुरु परम्परा की वंशावली) के अनुसार तीन महापुरुषों के हालात नहीं थे । अत: उन्होंने उक्त जमीमा परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया जिसमें इन तीन महापुरुषों के हालत लिखे हुए हैं :- हज़रत मौलाना मौलवी शाह मुरादुल्लाह (कु॰सि॰), हज़रत सैयद अबुल हसन साहिब नसीराबादी (कु॰सि॰) और हजरत सैयद खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब मऊरशीदाबादी (कु॰सि॰) । इस प्रकार मौलाना मुहम्मद हसन साहिब द्वारा लिखित पुस्तक तथा हुज़ूर महाराज द्वारा रचित जमीमा इन दोनों पुस्तकों को एक साथ मिला कर पढ़ने से नक़्शबन्दिया सिलसिले के सभी महापुरुषों के हालात शज्रः शरीफ के मुताबिक क्रमवार हज़रत पैगम्बर मोहम्मद साहिब (सल्ल॰) से लेकर हजरत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब (रहम॰) तक मिल जाते हैं ।
ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने नौ रबी उल अव्वल तेरह सौ सात हिजरी बरोज़ दो शम्बा विसाल फ़रमाया । आपकी पवित्र मज़ार गुजरी नूरखाँ व कुबेरपुर (कायमगंज) के नज़दीक जो कब्रिस्तान नन्दू खाँ का मशहूर है, वहाँ मस्जिद के निकट स्थित है । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पुत्र अब्दुल्ला की कब्र खलीफ़ा जी साहिब की मजार शरीफ के बराबर बनी है । इससे मिली हुई पूर्व दिशा में बव्वाजी (पूज्य खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी) की है । पूज्य खलीफ़ा जी साहिब के पाँइती में कच्ची कब्र आपके नवासे जवाब अली शेर खाँ साहिब की है जो हुज़ूर महाराज के खलीफ़ा थे ।
परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की मज़ार शरीफ़ शुरु में कई वर्षों तक मिट्टी तथा पुरानी ईटों से बनी हुई हालत में रही । बाहर से आने वाले सत्संगी भाइयों को उनकी मज़ार शरीफ़ को ढूंढ़ने में बड़ी असुविधा होती थी क्योंकि वहाँ मज़ार पर कोई ऐसा निशान अथवा ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का नाम भी नहीं लिखा हुआ था । इस असुविधा को दूर करने के लिए हुज़ूर महाराज के पौत्र ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने उस मज़ार को पुख्ता बनवाने का इरादा किया ।
उन्होंने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की मज़ार शरीफ़ की तामीरात (निर्माण कार्य) के लिए मिस्त्री जिसका नाम मुअज्ज़म खाँ था नियुक्त किया, वह पक्के नमाज़ी और शरीअत के पाबन्द थे । वह बावुज़ू (पवित्र) होकर कार्य करते थे । उक्त मज़ार शरीफ़ का चबूतरा तामीर (निर्मित) होने के बाद जब उसकी ताबीज बना रहे थे तो उस मज़ार के अन्दर से उन्हें यह आवाज सुनाई दी, 'मियाँ ! क्या कर रहे हो ? फ़क़ीर तो गुमनाम ही रहा करते हैं ।' बस यह आवाज़ सुन कर वह वहाँ से उठे और ज़नाब मंज़ूर अहमद खाँ साहिब के पास आये और बोले, 'मौलाना साहिब, यह एक ज़िन्दा वली की मज़ार है । मुझे इस तरह की आवाज सुनाई दी है कि फ़क़ीर तो गुमनाम ही रहा करते हैं ।' अब आप क्या कहते हैं ? यह काम मेरी हिम्मत के बाहर है ।
मियाँ मुअज्ज़म की ऊपर लिखित बात का ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने जो जवाब दिया तथा इस विषय में उन्होंने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब से जो दुआ की उसके बारे में यह लेखक उन्हीं के शब्दों में लिख रहा है- 'मैंने उनको (मियाँ मुअज्जम को) तसल्ली देकर कहा, अब मैं हजरत साहिब से (पूज्य खलीफ़ा जी साहिब से) अपने मुर्शिद के वास्ते से अर्ज करता हूँ । आप भी मेरे हक में सिफारिश करें । इस ख़ादिम बे अपने पीरो मुर्शिद हजरत मौलाना अल्हाज़ शाह अब्दुल ग़नी खाँ आफ़रीदी नक़्शबन्दी, मुजद्दिदी, मज़हरी, नईमी, फ़ज़्ली (रहम॰) के वास्ते से यह अर्ज़ किया कि, 'या हज़रत ! यह सच है कि फ़क़ीर गुमनाम ही रहा करते हैं, मगर हम जैसे बन्दे गुनहगार किस तरह से आपके यहाँ हाज़िरी दे सकें । आप का मज़ार शरीफ़ आम कब्रिस्तान में है । हम भूल जाते हैं (उसको पहचानने में); इसलिए सिर्फ़ निशान चाहते हैं ताकि मुझको व दीगर आने वाले भाइयों को हाज़िरी देने में आसानी हो । यह मेरी दिली ख़्वाहिश है । उसे आप कबूल फ़रमायें और हम सब पर निगाहें करम हमेशा बनायें रखें । खुदा का शुक्र है कि आज वहाँ छत पड़ गई है और चार दिवारी हो गई है-वर्ना धूप और गोखरू (काँटे) इस क़दर थे कि एक कदम चलना या दस मिनट वहाँ बैठ कर फातेहा पढ़ना कठिन था ।'
एक वाक़या इस ग्रन्थ के लेखक ने अपनी दैनिक डायरी दिनांक 2-4-53 में अभी हाल ही में पढ़ा जो परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की मजार से सम्बन्धित है । इसका उल्लेख यह सेवक अपनी डायरी में लिखे हुये शब्दों में ही इस प्रकार कर रहा है:- दिनांक 2-4-53 को कायमगंज स्टेशन से उतर कर हम लोग पहले परदादा गुरु महाराज (परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब रहम॰) की पवित्र समाधि के लिए रवाना हुए । रास्ते में पूज्य मेहरोत्रा साहिब ने (श्रीमान बृजनारायण जी मेहरोत्रा जो पूज्य चच्चाजी महाराज के शिष्य थे) मुझसे और श्रीमान ईश्वर दत्त जी शर्मा से फ़रमाया कि हम लोगों को एकदम चच्चाजी में फ़ना होकर परदादा गुरु महाराज के सामने हाजिर होना चाहिए । इतनी बड़ी हस्ती के सामने बिल्कुल चच्चाजी महाराज में फ़ना होकर चलना बहुत ही जरूरी है । जब हम लोग नजदीक पहुँचे, मुझको अन्दर से इस बात का खौफ लग रहा था कि उनके सामने कोई गैर ख्याल न आ जाये । बस ज्यों ही मैं उनके सामने पहुँचा, एकदम आँखों में आँसू आ गये और मैं रो पड़ा । पूज्य मेहरोत्रा साहब और श्रीमान शर्मा जी भी रो पड़े । कुछ मिनटों के बाद हम लोग वहीं जमीन पर बैठ गये । पूज्य परदादा गुरु महाराज की समाधि में कुछ पुरानी ईटें लगी हुई थीं । कोई नया आदमी तो उसको पहचान ही नहीं सकता था । उस समय कड़ी धूप थी और जमीन काफी तप रही थी लेकिन वहाँ जहाँ हम लोग बैठे हुए थे एक अजीब वातावरण पैदा हो गया । फौरन ठंडी हवा चलती हुई महसूस हुई । उस जमीन पर गोखरू और कांटे पड़े हुए थे लेकिन ज्यों ही हम लोग वहाँ बैठे वह जमीन एकदम गद्दे की तरह मुलायम और ठंडी मालूम होने लगी । हम लोग थोड़ी देर पूजा करने के बाद उठे । हुज़ूर महाराज के पौत्र परम पूज्य शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब हम लोगों के साथ थे । उन्होंने उस जमीन की मिट्टी हम लोगों को दी और फ़रमाया कि इस मिट्टी में भी बहुत असर है । उन्होंने प्रसाद के बताशे हम लोगों को दिए ।
ज्यों ही हम लोग वापस चलने को हुए कि एक बुढ़िया आकर खड़ी हो गई और परदादा गुरु महाराज का नाम लेकर कहने लगी कि क्या उनकी मजार पर आये हो । ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने फ़रमाया कि जी हाँ । उन्होंने उस बुढ़िया से परदादा गुरु महाराज के खानदान वालों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि हाँ इसी सरईयाँ मुहल्ले में रहते हैं उनके नवासे के लड़के । हम लोगों ने पूछा क्या वह अभी घर पर होंगे ? उसने कहा, हाँ जरूर मिलेंगे । औरतें तो होंगी ही । हम लोग उस घर में पहुँचे जहाँ उस समय परदादा गुरु महाराज (पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) के नवासे के लड़के रहते थे । उस समय घर में कोई मर्द तो थे नहीं । खेतों में शायद चले गये थे । औरतें थीं । हम लोग उस महान पवित्र कोठरी में गये जहाँ परदादा गुरु महाराज ने बरसों खुदा की इबादत की थी । वहाँ पहुँचते ही हम लोगों को एक ऐसी अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ जो वर्णन के परे थी ।
उक्त घटना के अलावा एक घटना की जानकारी ज़नाब मंज़ूर अहमद खाँ साहिब (हुज़ूर महाराज के पोते) ने अपने एक पत्र में इस लेखक को दी थी, जो उन्हीं के शब्दों में दी जा रही है-
'इस ख़ादिम ने उस कोठरी का दीदार किया है (जहाँ ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने बरसों इबादत की थी) बड़ी पुर रौनक जगह है । मेरी मुलाकात मजार शरीफ की तामीर (निर्माण) के वक्त ज़नाब अली शेर खान साहब के दामाद नजर मुहम्मद खान साहब से हुई थी । वह मुझे घर ले गये थे । यह मुलाकात 12-4-75 को हुई थी । एक बार मेरे साथ में मेहरोत्रा साहिब (श्री बृजनारायण मेहरोत्रा) व पूज्य श्रीमान् बाबू भोला नाथ भल्ले साहब एस॰पी॰ (पुलिस अधीक्षक); ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की खानकाह में (कोठरी में) गये थे । वह जगह ऐसी थी कि हम लोग हैरान रह गये यानी वहाँ पर इतना तेज ज़िक्र हो रहा था जो हम लोगों को बरदाश्त नहीं हो रहा था । एक खास बात वहाँ घरवालों ने बताई कि अगर किसी बच्चे को रोना (चीख) लग जाये या कोई नज़र का असर हो जाये तो उस मरीज़ को उस कोठरी में डाल दें तो वह मरीज या बच्चा फौरन ठीक हो जाता है । घरवालों ने (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के नवासे के दामाद ने) ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का एक जोड़ा कपड़ा व जानमाज भी हम लोगों को दिखाया था ।
परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की पैदल सफ़र करने की असीम सामर्थ्य का जिक्र करते हुए हजरत मौलवी हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब (रहम॰) ने कानपुर में सत्संगी भाइयों को एक घटना दिनांक 14-11-42 को सुनाई थी जो इस प्रकार है - एक दफ़ा ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब किसी साहब से मिलने के वास्ते कायमगंज से फर्रुखाबाद हुज़ूर महाराज को साथ लेकर रवाना हुए, मगर फर्रुखाबाद पहुँचने पर पता चला कि वह साहब कायमगंज गये हुए हैं । आप फौरन वहाँ से लौट पड़े और फर्रुखाबाद से कायमगंज गये । वहाँ पता लगा कि वह लखनऊ गये हुए हैं । आप फौरन ही वहाँ से लौटे और फर्रुखाबाद पहुँचे । ज़नाब हुज़ूर महाराज ने सोचा कि शायद यहाँ ठहर कर आप फिर चलेंगे । मगर ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब वहाँ भी न रुके । हुज़ूर महाराज ने आप से अर्ज किया कि साहिब मैं तो यह समझता था कि कहीं आप ठहर जायेंगे । आपने फ़रमाया, अच्छा तुम मेरे पीछे यह दो अल्फ़ाज (शब्द) कहते हुए चले आओ । खुदा चाहेगा तो तुम्हें थकान महसूस न होगी । अत: ऐसा ही हुआ । एक मस्जिद पर पहुँच कर आपने कुएँ से पानी भरा और वुज़ू वगैरह से फरागत होकर आपने हुज़ूर महाराज के वास्ते पानी रख दिया और आकर उनके पैर दबाने बैठ गये । हुज़ूर महाराज थक तो गये ही थे, इसलिए आकर लेटे हुये थे । आपने जब अपने गुरु महाराज (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) को देखा कि वह उनके पैर दबा रहे हैं तो फौरन उठ कर बैठ गये और मुआफ़ी माँगने लगे । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि भाई तुम थक गये होंगे, इस वास्ते तुम्हारे पैर दबाने लगा हूँ । हुज़ूर महाराज ने अर्ज किया कि मैं थका नहीं हूँ । आपने फ़रमाया कि अगर थके न होते तो नमाज पढ़ लेते । हुज़ूर महाराज फौरन उठे और वुज़ू के वास्ते कुएँ से पानी भरने के लिए चले, तो ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि मैं तुम्हारे वास्ते पानी पहले ही भरकर रख आया हूँ । हुज़ूर महाराज ने अपने हाथ-मुँह धो कर नमाज अदा की ।
एक बार हुज़ूर महाराज के गुरु भाई मौलाना शाह हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब (रहम॰) ने कानपुर में सत्संगी भाइयों से ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की शक्ल, सूरत और डील-डौल के विषय में फ़रमाया था कि, 'ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब नाटे, दोहरे बदन के और गंदुमी रंग के थे । आपका चेहरा मय दाढ़ी के बिलकुल गोल था । आप पठान थे ।' जितने भी काबुली पठान हैं मय अमीर काबुल के खानदान के सब के सब इसी सिलसिले के हैं ।
हुज़ूर महाराज की शिक्षा और जीविकोपार्जन
हुज़ूर महाराज ने मिडिल स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । इसके पश्चात नार्मल ट्रेनिंग में प्रवेश लिया । वहाँ की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । उन्होंने अरबी और फारसी की तालीम हजरत ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब से हासिल की जो उनके पूज्य गुरुदेव भी थे । उस जमाने में नार्मल ट्रेनिंग करने के बाद फौरन ही डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में अध्यापक के पद पर नियुक्ति हो जाती थी । परन्तु हुज़ूर महाराज ने इस ख़्याल से कि उन्हें अपने पूज्य गुरुदेव (हजरत ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) की सेवा से वंचित होना पड़ेगा, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में अध्यापक पद पर जाना स्वीकार नहीं किया और आजीवन अपने पूज्य गुरुदेव के निकट सम्पर्क में रहते हुए उनकी सेवा में लगे रहे । हुज़ूर महाराज खाली समय में मुहल्ले तथा क़स्बे के लड़कों को उर्दू फारसी की शिक्षा देते थे । उनमें से अधिकांश लड़के तो गरीब परिवारों के होते थे । अत: हुज़ूर महाराज उन्हें बड़े प्रेम से निःशुल्क शिक्षा देते थे । केवल कुछ अच्छे परिवारों के लड़के जो कुछ भी श्रद्धा पूर्वक पारिश्रमिक के रूप में हुज़ूर महाराज को दे देते, उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेते और उसी में अपनी गुजर-बसर करते । हुज़ूर महाराज ने अपने जीविकोपार्जन की एक नसीहत आमेज़ (शिक्षाप्रद) घटना अपनी पुस्तक 'जमीमा हालात मशायख नक़्शबन्दिया' में लिखी है, जो उन्हीं के शब्दों में नीचे अंकित की जा रही है –
''एक बार मैं बेकार हो गया था और दसवीं तारीख माह दिसम्बर की थी । आपने (हजरत खलीफ़ा जी साहिब ने) मुझसे दरियाफ्त किया-किस क़दर तनख्वाह में (कितने वेतन में) तुम्हारी गुजर हो जायेगी? मैंने अर्ज किया कि हजरत, पाँच रुपया माहवारी अलावा खुराक के वास्ते दुआ कीजिएगा । हजरत ने जरा से तअम्मुल (विचार) के बाद फ़रमाया कि तुम पहली दिसम्बर से इस तनख्वाह पर नौकर हो गये । यह सुन कर मुझे यकीन न हुआ । फिर हजरत ने फ़रमाया कि तुझे यह बात झूठी मालूम हुई ? मैंने अर्ज किया कि हजरत सच होगी, मगर दसवीं तारीख तक मुझे खबर न हो, यह कैसी बात है । उस वक्त हजरत खलीफ़ा जी साहिब ने बन्दा को नसीहत की कि, अपने मक्शूफात को (गुप्त बातों को जो आध्यात्मिक साधना से प्रकट होने लगती हैं) सब लोगों से छिपाना चाहिए । देखो, तुम-सा मुरीद मुख्लिस (निष्ठावान शिष्य) भी यकीन नहीं करता तो फिर औरों से क्या उम्मीद हो ? जब मैं हजरत से जुदा हुआ तो उसी वक्त अपनी नौकरी का हाल मालूम हो गया कि मुन्शी बद्रीप्रसाद वकील ने जराद में नौकर करा दिया है । उसी वक्त अपने काम पर गया और बीस रोज बाद पूरी तनख्वाह पायी (पहली दिसम्बर से 31 दिसम्बर तक का पूरा वेतन प्राप्त किया ।)''
जैसा कि ऊपर निवेदन किया जा चुका है कि हुज़ूर महाराज खाली समय में मुहल्ले तथा क़स्बे के लड़कों को उर्दू फारसी की शिक्षा प्रदान करते थे । जब वह वृद्ध हो चले और उनकी आर्थिक स्थिति ठीक न रहने लगी तो उन्होंने फर्रुखाबाद के मिशन स्कूल में उर्दू, फारसी की शिक्षा देने के लिए अध्यापक के पद पर कार्य करना स्वीकार कर लिया । फर्रुखाबाद में हुज़ूर महाराज ने मुफ्ती साहब के मदरसे के नजदीक रहने के लिए एक कोठरी ले रखी थी । यहाँ भी वह फुर्सत के समय मदरसे के लड़कों को उर्दू, फारसी और अरबी की तालीम देते थे । यहाँ पर हुज़ूर महाराज के परम शिष्य महात्मा रामचन्द्र जी महाराज प्रथम बार उनके सम्पर्क में आये । (इस घटना का विस्तृत विवरण अगले अध्याय में दिया जा रहा है ।) महात्मा रामचन्द्र जी महाराज के साथ ही धीरे-धीरे कई हिन्दू सत्संगी भाई हुज़ूर महाराज की सेवा में उपस्थित होकर उनसे रूहानियत की तालीम (आध्यात्मिक शिक्षा) ग्रहण करने लगे । फर्रुखाबाद के कुछ रूढ़िवादी और कट्टरपंथी मुसलमानों को हुज़ूर महाराज का यह उदार दृष्टिकोण पसन्द न आया । अत: उन लोगों ने हुज़ूर महाराज को विभिन्न प्रकार से परेशान करना आरम्भ कर दिया । हुज़ूर महाराज बड़े ही निर्भीक और उदार दृष्टिकोण वाले महापुरुष थे । वह ऐसे संकीर्ण और रूढ़िवादी मुसलमानों की आलोचना और विरोध की परवाह न करते हुए हिन्दुओं और अन्य धर्मावलम्बियों को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपनी रूहानियत की तालीम से फैज़याब (लाभान्वित) करते रहे ।
अन्ततोगत्वा एक दिन रात्रि के समय हुज़ूर महाराज के दिल में यह ख्याल पैदा हुआ कि अब ईश्वर की यह मर्जी है कि यह स्थान त्याग दिया जाये । अत: उन्होंने उसी समय 'अल्लाहो अक़बर' का एक तेज नारा लगाया और अपने निवास स्थान रायपुर को प्रस्थान कर गये और अन्त समय तक वहाँ निवास किया । रायपुर में उस समय तक बहुत से सत्संगी भाई उनकी सेवा में उपस्थित होने लगे थे और उनका अधिकांश समय रूहानियत की तालीम में ही व्यतीत होता था । फिर भी वह कुछ समय निकाल कर मुहल्ले के बच्चों को बड़ी मुहब्बत से उर्दू, फारसी की शिक्षा देते थे । इस प्रकार हुज़ूर महाराज का अधिकांश जीवन अध्यात्म शिक्षण के साथ ही साथ अध्यापन कार्य में व्यतीत हुआ ।
हुज़ूर महाराज का आध्यात्मिक जीवन
जैसा कि निवेदन किया गया है कि हजरत खलीफ़ा जी साहिब के पास जो लड़के उर्दू और फारसी की शिक्षा ग्रहण करने आते थे, उनमें से एक हुज़ूर महाराज भी थे । सर्वप्रथम हुज़ूर महाराज ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के सम्पर्क में केवल किताबी ज्ञान प्राप्त करने आये थे, परन्तु धीरे-धीरे उन पर ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के आत्म ज्ञान का रंग चढ़ता गया और वह 19 वर्ष की आयु में ज़नाब खलीफ़ा जी के हाथों बैअत (दीक्षित) हुए । हुज़ूर महाराज ने स्वयं अपने विषय में लिखा है कि जब वह ज़नाब खलीफ़ा जी से बैअत हुए, तब से बराबर दोनों वक्त सुबह-शाम बीस बरस तक आपकी खिदमत में हाजिर होकर तवज्जोह ली और अजीब वारदातें (हालातें) पैदा हुई । हुज़ूर महाराज को उनके पूज्य गुरुदेव ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने जिस प्रकार इज़ाज़त अता की और अपना खलीफ़ा बनाया, उससे सम्बन्धित पूरी घटना का वर्णन हुज़ूर महाराज ने अपनी पुस्तिका 'जमीमा हालात मशायख नक़्शबन्दिया मुज़द्दिदिया' में अंकित किया है, जो अक्षरशः उन्हीं के शब्दों में दिया जा रहा है । (केवल कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ को कोष्ठक में दिया गया है ।) : -
''हजरत खलीफ़ा साहिब की शान उन मक़ातीब (पत्रों) से जाहिर होती है जो हजरत सैय्यदना ने (हजरत सैय्यद अबुल हसन साहिब नसीराबादी ने जो हजरत खलीफ़ा जी साहिब के पूज्य गुरुदेव थे) आपके नाम इर्साल फ़रमाये हैं (भेजे हैं) और इस फ़क़ीर सरापा तक्सीर फज़्ल अहमद खाँ (हुज़ूर महाराज) को इनायत फ़रमाया है और असल ख़तूत (पत्र) भी दिये और फ़रमाया, 'यह सामान तुम्हारे काम का है, तुम रखो, अल्लाह मुबारक करें ।' एक मक़्तूब (पत्र) में सैय्यदना फ़रमाते हैं कि तुम से एक आलम (संसार) मुनव्वर (प्रकाशमान) होगा और यह अम्र (आदेश) आपके कुत्बक़ु इर्शाद होने की दलील है । (आध्यात्मिक तालीम, उपदेश तथा आदेश देने के लिए पूर्ण रूप से अधिकार प्राप्त महात्मा होने का प्रमाण है ।) दूसरी जगह लिखा है कि कुफ़्फ़ार को (नास्तिक लोगों को) राह चलतों को, फासिको (पापियों को), बदएतों को शुराचारियों को) तवज्जोह दोगे तो वे कामिलुल-ईमान होंगे (धर्म और ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखने वाले बनेंगे) । तीसरी जगह फ़रमाया, जो तुम को मिला इस जमाने में शायद किसी को मिला हो । मेरे मुर्शिदना अहमद अली खाँ साहिब ने जब बन्दा को इज़ाज़त और ख़िलाफ़त की इज्जत बख़्शी तो अव्वल मकतूब को फ़रमाया कि पढ़ लो । चुनाँचे गुलाम ने पढ़ा । जब खत्म हो चुका तो फ़रमाया कि फज़्ल अहमद, यह बातें हमसे तो कुछ न हुई । मैंने अर्ज़ किया कि हज़रत अब इन्शा अल्लाह तआला जुहूर फर्मा होंगे (प्रकट होंगे) । हजरत ने फ़रमाया, अब हम ग़ोर किनारह हुए (हमारा अन्त समय निकट आ गया है), चन्द दिनों के मेहमान हैं । बन्दा यह सुन कर रोने लगा । आपने फ़रमाया, 'शाबास, यह वक्त रोने का है ?' मआन (तत्काल) मेरे क़ल्ब में बशाशत व सुरूर (आत्मिक आनन्द का हल्का नशा) पैदा हुआ । सुन कर फ़रमाया, यह बातें खाली न जायेंगी । इनका जुहूर अब तुम से होगा । यह हजरत का इर्शाद सच हुआ । इस अहकर से अक्सर हिन्दुओं और ईसाइयों और शियों को फायदा पहुँचा । अलहम्दु लिल्लाह (तमाम तारीफ़ें अल्लाह के लिए हैं) । इसके बाद हजरत मुर्शिदना खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि, 'अब तक तो तुम खूब आराम से रहे । अब मैं एक बार अज़ीम (बहुत बड़ा बोझ) और अम्र फख़ीम (प्रतिष्ठित कार्य) सुपुर्द करता हूँ । अगर बजा लाओगे तो अँबिया और औलिया के साथ मशहूर रहोगे ( क़यामत के दिन जिन्दा किये जाओगे) वरना यही खिर्कः (वस्त्र, लिबास) दोज़ख़ (नर्क) को खींच ले जायेगा । कमतरीन बहुत रोया और अर्ज़ किया कि, हजरत बन्दे को मुआफ़ फ़रमाइये । खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया, खुदा आसान करेगा, और गुलाम के वास्ते दुआ की, फिर हजरत सैय्यदना की अतीयः तबर्रुकात (प्रसाद एवं उपहार रूप में प्राप्त वस्तुएँ) तलब फ़रमा कर उसमें से हजरत की तस्बीह (जप करने की माला और कुर्त्ता शरीफ़ की आस्तीन मुबारक एक टुकड़ा दस्तार (पगड़ी) शरीफ़ और एक कुलाह (टोपी), अपना कुर्त्ता मरहमत फ़रमाया (देने की कृपा की) और यह फ़रमाया कि हर एक बुजुर्ग अपने खलीफ़ा को अपना तबर्रुक (प्रसाद) दिया करता है । ज़िहेनसीब तुम्हारे (वाह! तुम्हारा सौभाग्य है) कि तुम को हजरत सैय्यदना अबुल हसन साहिब के तबर्रुकात मिले । शुक्र इस अतीयः (उपहार) का करना चाहिए ।''
उक्त विवरण पढ़ने से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने हुज़ूर महाराज को इज़ाज़त और ख़िलाफ़त बख़्शते समय उन्हें जो आशीर्वाद दिया, वह आज अक्षरशः सत्य घटित हो रहा है । सम्भवतः नक़्शबन्दिया सिलसिले में हुज़ूर महाराज पहले सूफी सन्त थे, जिन्होंने मुसलमान सूफी सन्तों की इस गुप्त आध्यात्मिक विद्या का प्रचार हिन्दुओं में बिना किसी धार्मिक भेद-भाव के किया । वह यद्यपि इस्लाम धर्म के अनुयायी थे, परन्तु धार्मिक पक्षपात से पूर्णतया मुक्त थे । वह कभी भी विभिन्न धर्मों के वाद-विवाद में नहीं पड़ते थे और न कभी आप किसी धर्म की आलोचना करते थे । यदि किसी स्थान पर किसी धर्म की आलोचना की जाती थी तो आपको अच्छा नहीं लगता था और वहाँ से उठ कर चले जाते थे । वह फ़रमाते थे कि दुनियाँ के सभी इनसानों में तर्ज़ रूहानियत (आध्यात्मिकता की पद्धति) एक है, परन्तु तर्ज़ माशरत (सामाजिक जीवन की पद्धति) अलग-अलग है । वह सभी धर्मों को समुचित सम्मान देते थे और अक्सर फ़रमाते थे कि रूहानी जिन्दगी (आध्यात्मिक जीवन) मज़हबी बन्धनों से पूर्णतया मुक्त है । वह बाहरी आडम्बरों के विरुद्ध थे । एक बार उनके एक हिन्दू, शिष्य ने इस्लामी रहन-सहन ग्रहण कर लिया । जब उस पोशाक में वह शिष्य उनके पास पहुँचा तो उन्होंने कहा कि अब तुम मेरे काम के नहीं । मैं अपनी फकीरी में धब्बा नहीं लगने दूँगा । तुम जैसे रहते थे वैसे ही रहो । बाहरी जीवन जिस समाज में पैदा हुए हो, उसी के अनुसार होना चाहिए । धर्म परिवर्तन को उन्होंने कभी पसन्द नहीं किया । बाहरी सामाजिक जीवन तथा आन्तरिक आध्यात्मिक जीवन का भेद बतलाते हुए हुज़ूर महाराज प्राय: निम्नांकित पद्य-पंक्तियाँ सुनाया करते थे
जाति न पूछे साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
काम करो तलवार से, पड़ी रहन दो म्यान ।।
वह हिन्दू, भाइयों से कहा करते थे, 'तुम मेरे पास आत्म-ज्ञान सीखने आये हो, वह तो सीखो, लेकिन अपनी रहनी-सहनी अपने समाज के अनुकूल ही रखो क्योंकि मेरा तुम्हारा आत्मिक संबंध है, दुनियावी नहीं ।' चूंकि उस समय छुआ-छूत की प्रबलता थी, अत: वह अपने हिन्दू, शिष्यों को सूखी मिर्च तक अपने हाथ से नहीं देते थे । जो हिन्दू, भाई उनके यहाँ आते थे, उनके लिए भोजन बनाने की अलग व्यवस्था थी ।
एक बार ज़नाब लालाजी साहिब (महात्मा रामचन्द्र जी) के एक गुरु भाई ने, जो मुसलमान थे, कहीं उनसे यह कह दिया कि बिना धर्म परिवर्तन के रूहानियत में आगे नहीं बढ़ा जा सकता । पूज्य महात्माजी ने हुज़ूर महाराज की खिदमत में हाजिर होकर उनसे अर्ज किया कि, 'हुज़ूर का हुक्म हो तो मैं इस्लाम क़ुबूल कर लूँ ?' यह सुनते ही हुज़ूर महाराज की आँखों के डोरे लाल हो गये । उस वक्त उनके क्रोध को देख कर ज़नाब लालाजी साहिब चुपचाप खड़े रहे । इस स्थिति में हुज़ूर महाराज अन्दर गये और पुन: थोड़ी देर बाद आकर बोले, 'किस मर्दूद ने तुम से यह कह दिया ? फिर धीरे से लालाजी साहिब को समझाया कि यह आध्यात्मिक विद्या किसी मज़हब की ताबेदार नहीं है, रूहानियत मज़हब के दायरे से बहुत दूर है ।'
हुज़ूर महाराज अपने पूज्य गुरुदेव के विसाल के कुछ समय बाद रायपुर में आकर फर्रुखाबाद के मिशन स्कूल में उर्दू, फारसी पढ़ाने के लिए अध्यापन कार्य करने लगे थे । जहाँ फर्रुखाबाद में ही महात्मा रामचन्द्र जी के जीवन में जो चमत्कारिक परिवर्तन हुआ, उसका संक्षिप्त विवरण नीचे अंकित किया जा रहा है: -
महात्मा रामचन्द्र जी महाराज के रहने का मकान छोटा होने के कारण उन्होंने अलग एक कोठरी किराये पर ले ली थी । इस कोठरी के पास ही दूसरी कोठरी में एक मुसलमान सूफी सन्त हजरत मौलवी फज़्ल अहमद खाँ साहिब रायपुरी (हुज़ूर महाराज) रहा करते थे । नौकरी मिलने के कुछ महीनों बाद एक दिन महात्मा रामचन्द्र जी को फतेहगढ़ कचहरी से लौटने में देर हो गयी । अन्धेरी रात थी, बादल गरज रहे थे, बिजली चमक रही थी और मूसलाधार वर्षा हो रही थी, जाड़े के दिन थे, आप बारिश में बुरी तरह भीग गये थे । कपड़ों से पानी टपक रहा था और जाड़े की वजह से काँप रहे थे । आपकी हालत उस समय बहुत परेशानी की और रहम के काबिल थी । जब आप बड़े दरवाजे से होकर अपनी कोठरी की तरफ जा रहे थे, उस वक्त सूफी साहिब (हुज़ूर महाराज) की प्रेम भरी दृष्टि आप पर पड़ी । उनको बड़ी दया आई और कहने लगे, 'इस तूफान में इस वक्त आना ।' महात्माजी कहा करते थे कि इन शब्दों में बड़ा प्रेम भरा हुआ था । आप ने बड़ी विनम्रता से आदाब पेश किया । हुज़ूर महाराज ने दुआ दी - अल्लाह अपना रहम करे, और बोले, 'बेटा, जाओ भीगे कपड़े बदल डालो, फिर हमारे पास आना और थोड़ी देर आग से हाथ-पैर सेंक कर तब घर जाना ।' महात्माजी ने ऐसा ही किया और कपड़े बदल कर हाजिर हुए । हुज़ूर महाराज ने तब तक मिट्टी की अंगीठी में आग सुलगा रखी थी । महात्माजी ने सलाम अर्ज़ किया । हुज़ूर महाराज ने ऊपर आँख उठा कर देखा । आँख से आँख का मिलना था कि महात्माजी के शरीर में सिर की चोटी से लेकर पाँव की उँगलियों तक एक बिजली-सी दौड़ गयी । तन-बदन का होश जाता रहा । ऐसा मालूम होता था कि दोनों आत्माएँ मिलकर एक हो गई हैं । हुज़ूर महाराज ने बड़ी कृपा करके महात्माजी को अपने बिस्तर पर बैठा लिया और अपनी रज़ाई उढ़ा दी । महात्माजी कहा करते थे कि, 'उस वक्त एक अज़ीब आनन्द का अनुभव हो रहा था और एक कैफ़ियत मस्ती की थी । शरीर बहुत हल्का मालूम होता था और ऐसा लगता था कि मैं आसमान में उड़ रहा हूँ और सारा शरीर प्रकाश से देदीप्यमान है ।' आप लगभग दो घंटे इसी हालत में बैठे रहे । इतने में बारिश बन्द हो गई । आप आज्ञा लेकर घर चले आये । कोठरी के बाहर यह मालूम होता था कि एक प्रकाश फैला हुआ है जिसमें दरख़्त, दरो-दीवार, जानवर सभी वस्तुएँ नाच रही हैं । महात्माजी के पिण्डी और ब्रह्माण्डी तमाम चक्रों से ॐ शब्द जारी था और ऐसा मालूम होता था कि आप की जगह हुज़ूर महाराज ने ले ली है । आप जब घर आये तो खाना खाने को तबियत नहीं चाहती थी । बगैर खाये ही सो रहे । रात को स्वप्न में आपने फकीरों का एक बड़ा समूह देखा और उस समूह में हुज़ूर महाराज को और अपने आप को भी देखा । उस समय एक सिंहासन आसमान से उतरा, जिस पर एक तेजस्वी महापुरुष बैठे हुए थे । सब लोग उन महापुरुष को देख कर खड़े हो गये । हुज़ूर महाराज ने आपको उनकी सेवा में पेश किया । उन महापुरुष ने बड़ी मुहब्बत से आपकी ओर देखा और कहा कि इनका रुझान शुरु से ही परमात्मा की तरफ है ।
दूसरे दिन सुबह आपने यह स्वप्न हुज़ूर महाराज को सुनाया । आप सुन कर बहुत प्रसन्न हुए । आँखें बंद कर ली, ध्यान-मग्न हो गये । कुछ देर बाद आँखें खोली और कहा कि यह स्वप्न नहीं, सत्य है । तुम्हारी हस्ती जन्म से ही परमात्मा की तरफ मायल है (झुकी हुई है) । तुम धन्य हो । तुम को इस वंश के पूर्व महापुरुषों ने (नक़्शबन्दिया सिलसिले की गुरु परम्परा के सभी महापुरुषों ने) अपनाया है । तुम्हारा जन्म भूले-भटके जीवों को सच्चे रास्ते में लाने के लिए हुआ है । ऐसी आत्माएँ मुद्दत बाद आती हैं । तुम्हारी जो हालत पहली ही बैठक में हुई, वह मुद्दत की तपस्या के बाद किसी-किसी की होती है । जब कभी तुम मेरे सामने से निकलते और प्रणाम करते थे, मेरी तबियत तुम्हारी तरफ खिंचती थी, प्रेम का एक सैलाब (ज्वार-भाटा) सा उमड़ता था और इस तरह तुम मुझसे बराबर फैज़याब हो रहे थे । अल्लाह ने चाहा तो बहुत जल्द फ़नाफ़िश्शैख (गुरु में लय होना) ही नहीं, बल्कि फ़नाफ़िल मुरीद (गुरु का शिष्य में लय होने) का दर्जा हासिल करोगे । अगर नागवार खातिर न हो (आपत्ति न हो) और फुरसत हो और तबियत चाहे तो इस फ़कीर के पास आते रहा करो ।
इसके बाद महात्माजी बराबर हुज़ूर महाराज की सेवा में हाजिर होते रहे । 23 जनवरी सं॰ 1896 को हुज़ूर महाराज ने आपको अपनी शरण में लेकर बैअत किया (दीक्षा दी) और बराबर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी सोहबत से फैज़याब करते रहे । 11 अक्टूबर सं॰ 1896 को कुल्ली इज़ाज़त यानी आचार्य पदवी प्रदान की । आचार्य पदवी देते समय हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया कि, 'मुझसे मेरे पीर मुर्शिद ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया था कि मुझसे लोगों को रूहानी फायदा होगा । लेकिन अफसोस ! मैं इस काबिल नहीं हुआ और इस फर्ज को पूरी तौर से अदा नहीं कर सका । अगर तुमने मेरा काम पूरा किया तो दीन और दुनियाँ दोनों में सूर्ख़रू होगे (सम्मान मिलेगा) और अगर इसमें कोताही (कमी) की तो मैं आक़बत में (परलोक में) दामनगीर हूँगा (पल्ला पकडूँगा) ।' यह फ़रमा कर वह खत जो खलीफ़ा साहिब का हुज़ूर महाराज के पास था पढ़ कर सुनाया । हुज़ूर महाराज की यह बातें सुनते ही महात्मा रामचन्द्र जी महाराज की एक तेज जज़्बी हालत पैदा हो गई और आँखों से आँसू निकल पड़े । उन्होंने रोते हुए बड़े विनीत भाव से हुज़ूर महाराज से अर्ज किया, 'हुज़ूर यह सेवक किसी काबिल नहीं है, आपकी ही आला पाक बुलन्द हस्ती यह खिदमत करायेगी ।' हुज़ूर महाराज ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए फ़रमाया, 'खुदा तुम्हारी मदद करेगा ।'
हुज़ूर महाराज कितने उच्च कोटि के महात्मा थे तथा उनकी रूहानी हस्ती कितनी बुलन्द थी, इस विषय में उनके परम शिष्य महात्मा रामचन्द्रजी महाराज ने समय-समय पर जो हार्दिक उद्गार प्रकट किये उन्हें महात्माजी के ही शब्दों में अगले पृष्ठ पर दिया जा रहा है ।
'मेरे रहनुमा ने (मेरे पथ प्रदर्शक अर्थात् हुज़ूर महाराज ने) मुझको महज़ मेरे ऊपर ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि खुद साये की तरह हर वक्त साथ-साथ रहकर सोलह बरस तक अपनी खास तवज्जोह ज़ाहिरी और अन्दरूनी से मेरी निगाह-दाश्त फ़रमाई (मेरी देखरेख की) । पन्थ के बाहरी आडम्बरों से अलहदा रहने के लिए हमेशा हिदायत फ़रमाई और आखिरकार अपने रंग में रंग रंगा कर यह हुक्म फ़रमाया कि हमारा मिशन जिस तरह और जहाँ तक हो सके दुनियाँ के लोगों को पहुँचाया जाये । आपकी मंशा यह थी कि गिरे हुए जीवों और भूले-भटके संसारियों को उबारा जाये और उनकी हालत को सम्भाला जाये । आपका फरमाना यह था कि जब तक लोगों की अन्दरूनी हालत न सम्हलेगी और उनकी भीतरी शक्तियों का उभार होकर वे जाग न जायेंगी और मन की ताक़तें अज़सरे नौ (फिर से) नश्वोनमा विकसित न होंगी और न फलें फूलेंगी, बुद्धि तेज होकर शुद्ध न होगी और सच्चा ज्ञान प्राप्त न होगा, उस वक्त तक खाली पूजा-पाठ और ऊपरी उपासना से खातिरख्वाह (मनोवांछित) काम नहीं चलेगा और जीव जैसे बंधे हुए हैं, वैसे ही बंधे रहेंगे ।'
इसलिए आपने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि जहाँ तक बन सके अन्दर का अभ्यास किया और कराया जाये और इसके साथ-साथ धर्म सम्बन्धी उसूलों (नियमों) की पाबन्दी भी की जाये । यम-नियम, जायज़ और नाजायज़ (उचित और अनुचित) तरीकों और अमलों (व्यवहारों) का पूरा ध्यान रखा जाये, जिससे अख़्लाक (चरित्र) सुधरे । स्वाध्याय से भी मौका-बमौका फायदा उठाया जाये, तभी जाहिरी और अन्दरूनी तरक्की मुमकिन है । बरख़िलाफ़ इसके अगर दुनियाँ के उन पन्थाइयों यानी अहले तरीक़त की रास (नक़ल) उतारी जायेगी और अमल न करेंगे, जो महज़ तितली बन कर रहेंगे, जो किताबें पढ़ लेते हैं या बुज़ुर्गों का हाल सुन कर अपने दिल का इत्मीनान हासिल कर लेते हैं और अन्दरूनी अभ्यास कुछ नहीं करते उनका अभ्यास सिर्फ थोड़ी देर किताबों का पाठ करना और भजन कीर्तन करके शब्दों को गाकर अपनी तबियत बहलाना है तो फिर जिसका नाम असली मक़सद तक पहुँचना है, कोसों दूर हो जायेगा ।
हुज़ूर महाराज ने अपने परम शिष्य महात्मा रामचन्द्र जी के जीवन में अलौकिक परिवर्तन करते हुए किस प्रकार उन्हें एक उच्च कोटि की आध्यात्मिक स्थिति पर पहुंचा दिया इसका उल्लेख महात्माजी ने निम्नांकित शब्दों में किया है :-
''आज से 25 वर्ष पहले मैं एक ऐसी जगह खड़ा हुआ था, जहाँ पर मेरे सामने बेशुमार राहें खुली हुई थीं । मैं हैरान था कि इन रास्तों में से किस रास्ते पर चल निकलूँ । अक़्ल और तमीज तो मौजूद थी, लेकिन कुछ काम नहीं आयी, क्योंकि हर रास्ते पर कुछ न कुछ लोग, किसी पर कम और किसी पर ज्यादा, चल रहे थे और उन सबसे दरियाफ़्त करने पर हर गिरोह अपने साथ ले चलने पर राजी था । राजी ही नहीं, बल्कि हर शख़्स अपनी समझ के मुआफिक दलीलें पेश करके कोशिश करता था कि मेरी तबियत का झुकाव उनकी तरफ हो जाये, पर किसी की दलील दिल को जगती हुई न मिली क्योंकि नजर चकाचौंध हो रही थी और क़ुव्वते फैसला (निर्णय करने की क्षमता) इस कशमकश के सबब से एक बात पर जम जाने के लिए मुस्तइद (तैयार) न हुई । नतीजा यह कि थक कर बैठ रहा ।'' आखिर एक दिन ऐसा आया कि इस जाज़बे हक़ीक़ी यानी परम पिता परमात्मा ने अपनी मेहर से मेरी तरफ निगाह की और अपनी महान शक्ति को जिन्दा इन्सानी सूरत में सच्ची हमदर्दी करने के लिए मुझ तक पहुँचा दिया । यह विश्वरूप दर्शन, जिसने आत्म भाव दर्शन के रूप में आकर मेरी हमदर्दी की और मेरा हाथ पकड़ कर पलक मारते में मुझको कहीं से कहीं ले जाकर खड़ा कर दिया । यह वह जगह थी जहाँ दुनिया की हर चीज अपनी अज़मत और जलाल (अपने प्रताप और तेज) से चमकती है । मैंने जो देखा और जो पाया वह पाया । आप लोग भी इसकी मिसाल श्री भगवत् गीता के पहले अध्याय के उन श्लोकों में पा सकते हैं, जहाँ अर्जुन ने मायूस (निराश) होकर अपने हथियार रख दिए थे और मेरी तरह मायूस होकर उम्मीद और ख़ौफ़ की मिली हुई हालत में अपना मंसबी काम (अपना कर्त्तव्य पालन) करने से इन्कार कर दिया था । अगर श्री कृष्ण महाराज आनन्दकन्द इस मौक़े पर अपनी अज़मत और जलाल के साथ अर्जुन को उस मुक़ाम तक खींच कर न ले जाते और फिर अर्जुन की दरख़्वास्त पर अपनी जमाली सूरत उनके दिल में न बिठाल देते तो नतीजा जाहिर था । ग़रज़ कि मैं शाहराह कामयाबी (सफलता के राजपथ) पर खड़ा कर दिया गया और मुझको मेरे काम करने के लिए अकेला नहीं छोड़ा । अपनी छोटी-सी सूरत धारण करके मेरे अन्धेरे और नापाक़ (अपवित्र) दिल की कोठरी में हमेशा के लिए बैठक अख़्तियार की (बस गये) ।
यह मोहिनी सूरत दिल में ऐसी बसी कि मैं अपना आपा भूल गया और यह समझने लगा कि मैं नहीं हूँ, वह हैं । हल्के-हल्के हर रोंगटे-रोंगटे में उसने ऐसा रंग जमाया कि फिर वह नहीं मैं ही था और आखिरकार यह कि न वह और न मैं, दोनों मौजूद और गैरमौजूद हो गये । जैसा था वैसा रहा ।''
मेरे मालिक और हाथ पकड़ने वाले की आला हिम्मती, बुलन्द हौसलगी और फ़िरती शफ़कत (उच्च कोटि का साहस और उत्साह तथा स्वाभाविक दया कृपा) लगातार हर हालत में इस तरह मसरूफ़ और मुतवज्जह (व्यस्त तथा ध्यान देने वाली) रही है कि बिना लिहाज़ फ़िरक़ा और मजहब फैज़ाने इलाही की बारिश मुतनफ़्फ़िस पर फ़रमाते रहे (सम्प्रदाय और धर्म का कोई भेदभाव न रखते हुए ईश्वर कृपा की अमृत वर्षा हर प्राणी मात्र पर करते रहे) । उनकी हर अन्दर आने वाली साँस लोगों के दिलों की स्याही (कालिमा) को सिफ़्वत (साफ़) कर बाहर फेंक देने वाली थी और हर बाहर आने वाली साँस दिल, दिमाग और हर रगो-पट्टे में ईश्वर कृपा की अमृत धार को भर देने वाली थी । वह जिस्म (शरीर) में रहकर अपना काम कर गये और अब आजाद होकर उसी काम में सरगर्म हैं । जो जान सके, वह जाने और जो देख सकता हो वह देखे ।
... मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि मेरे मालिक की मर्जी क्या थी, लेकिन अब भी दोहराता हूँ कि उनका हर ख़्याल और हर फेल जीव मात्र के उद्धार के लिए होता था और यह उनके स्वभाव में दाखिल हो गया था । हर ख़्याल का असर और हर काम का नतीजा होकर रहता है । जो उनको जानने वाले हैं, वह जानते होंगे उनकी ज़ात से (उनके व्यक्तित्व से) जाहिरी व ग़ायब (प्रकट तथा अप्रकट रूप में क्या-क्या फ़ायदे हमको पहुँचे । निहायत मुख़्तसर (अत्यन्त संक्षेप में) यह है कि हमारे हर पारमार्थिक काम के शुरु करने, कायम रखने और अन्जाम (नतीजा) को पहुँचाने के लिए जो तरीके प्रचलित हैं, उसमें ज़माना हाल की आबोहवा का रंग देखकर आसानी की एक ताज़ा और दिलचस्प अगर धर्म का हर पहलू लिए हुए रूह (जान) फूँक दी ।
इस तालीम को आप हद भर अपने ढंग से अमली तौर पर (क्रियात्मक रूप में) काम में लाने की कोशिश करते रहे और साथ ही साथ अपनी सेरचश्मी (पूर्ण संतोष) तथा फ़ितरती फैयाज़ी (स्वाभाविक दानशीलता अथवा उदारता) से निहायत सरगर्मी (अत्यन्त तत्परता) के साथ इस उसूल सिद्धांत को मद्देनज़र (ध्यान में) रखा कि अपने पीछे चलने वालों के दिलों में बक़दर उनकी इस्तेदाद और हिम्मत के (उनकी योग्यता अथवा पात्रता तथा उत्साह के अनुसार) इस तर्ज़ तालीम की रूह को जज़्ब कर दिया जाये (पेवस्त कर दिया जाये) और जबानी भी इर्शाद फ़रमाया कि वह इससे काम लें । मगर अब यह हमारी हिम्मत और जोश पर मुनहसिर (निर्भर) है कि इस क़ौल (वचन) और इक़रार (प्रतिज्ञा) का उनके पीछे निर्वाह (निबाह) करें या न करें ।
महात्मा रामचन्द्र जी महाराज फ़रमाते थे कि हमारे हुज़ूर महाराज का यह दस्तूर (नियम) था कि पहले शग़ल (आन्तरिक अभ्यास) में इस क़दर सई फ़रमाते (कोशिश करते) कि शाग़िल (अभ्यासी) को हक़ीकत (परम सत्य) तक पहुँचा देते और साक्षात्कार करा देते । इसके बाद इस्तलाहात तरीका की तालीम जबानी फ़रमा देते (आन्तरिक अभ्यास में होने वाले अनुभवों की व्याख्या मौखिक रूप से समझा देते) या कोई किताब अपने सामने निकलवा देते और अमल के क़ल्ब (अभ्यास से पहले) किताब का देखना यों मना फ़रमाते कि अगर तालिब को (अभ्यासी को) कोई कश्फ़ या मुशाहिदा हो (अपने आन्तरिक अभ्यास या साधना के फलस्वरूप गुप्त बातों के जानने की परम शक्ति प्राप्त हो जाये अथवा कोई आध्यात्मिक अनुभव होने लगे) और वह बयान करे तो बिला किताब देखा हुआ वाक़या और वारदात (घटनाएँ) जो बयान करेगा उसमें गुंजाइश शक की न होगी और किताब देखने के बाद वाक़या और वारदात के बयान करने में शक की गुंजाइश है । मुमकिन है कि कुव्वत हाफिजा से (स्मरण शक्ति से) वक्त यक सुई (फुर्सत या एकान्त समय में) वह वाहिमा के तौर पर बरामद हो गयी हो (काल्पनिक रूप में किताब में पढ़ी हुई बात दिमाग में आ गयी हो) और उसको बयान कर दिया हो । इसलिए जब तक अमल में मज़बूत (अभ्यास में दृढ़) न हो जाये, उस वक्त तक किताब का देखना ज्यादा मुफ़ीद नहीं । वह मालूमात (जानकारी या ज्ञान) में कुछ इज़ाफ़ा (वृद्धि) नहीं करते, बल्कि बाज़ औक़ात (कभी-कभी) कुव्वत वाहिमा को (कल्पना शक्ति को) तेज़ और बरबाद (तीव्र और नष्ट) कर देते हैं, जिससे कि रास्ते में (साधना) के मार्ग में रूकावट आती है ।
अपने एक लेख में ज़नाब लालाजी साहिब (महात्मा रामचन्द्र जी महाराज) ने अपने पूज्य गुरुदेव (हुज़ूर महाराज) की आला रूहानी कुव्वत (सामर्थ्य) के विषय में इस प्रकार अपने विचार प्रकट किये है:-
हमारे गुरुदेव के सत्संग का जिन महानुभावों को थोड़ा भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है वह जानते हैं कि गीता (अध्याय-2, श्लोक 54 से 58 तक) में वर्णित 'स्थित प्रज्ञ' की अवस्था शुरु में ही पैदा हो जाती थी । दो-चार दिनों के अभ्यासी से आप दरियाफ्त कीजिए तो वह अपनी वही हालत बतायेगा जो 'स्थित प्रज्ञ' की होती है, जब कि हुज़ूर महाराज ने इसके पहले कोई भी जिक्र उस हालत का उस अभ्यासी से नहीं किया ।
हुज़ूर महाराज का अपने मुरीदों को आध्यात्मिक शिक्षा देने का यह निराला ढंग था कि वह गुप्त रूप से बिना मुरीद को बतलाये हुए अपनी आत्मिक शक्ति से उसको ऐसी उच्च आत्मिक अनुभूतियाँ थोड़े ही समय में करा देते थे जो वर्षों की साधना और तपस्या से भी सम्भव नहीं है । जब वह मुरीद खुद अपनी तरफ से उस हालत का जिक्र उनसे करता था तब वह जबानी उस मुरीद को समझा देते थे कि तुम यह जो हालत अपनी बयान कर रहे हो उसका गीता में अथवा अमुक आध्यात्मिक ग्रन्थ में इस प्रकार वर्णन किया गया है । हुज़ूर महाराज साधकों उघैर जिज्ञासुओं को बैअत करने (दीक्षा प्रदान करने) में कितनी सावधानी बरतते थे इसका उल्लेख ज़नाब लालाजी साहिब ने अपनी पुस्तक 'कमाले इन्सानी' में इस प्रकार किया है : -
''हमारे मुर्शिद साहिब (हुज़ूर महाराज) का यह तरीका था कि अहले हिनूद (हिन्दू लोगों) को आम तौर पर और मुसलमान साहबों को खास कर पहले बैअत नहीं फ़रमाते थे (दीक्षित नहीं करते थे), बल्कि एक अर्से तक इसका ज़िक्र भी नहीं करते थे और इशारे से भी (संकेत रूप में भी) जाहिर नहीं करते थे । बल्कि जब कभी उन्हें यह मालूम होता था कि मुरीद में अब ख़्वाहिश बैअत की है और उसको कुछ तरीका आ गया है और इस काम में चल निकला है और शौक़ीन भी है और खुद ख़्वाहिश बैअत करता है तो बैअत फ़रमा लेते (दीक्षित कर लेते) और उससे व्रत वगैरह कुछ नहीं रखवाते थे बल्कि कई महीनों और बरसों तक उसको बिला तक़ल्लुफ खुशी से सिखाते रहते थे (आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करते रहते थे) और बैअत हो जाने वाले मुरीदों और बिला बैअत किये हुए मुरीदों में कुछ फर्क नहीं समझते थे । अगर तमाम उम्र कोई ख़्वाहिश बैअत न करता तो उसी तरह उसकी तरफ रुजूअ रहते (उन्मुख रहते) और बिला तमीज़ और दुई के (बिला भेदभाव के) हर तरह की तालीम फ़रमाते रहते थे । अलबत्ता देखा गया कि जो बैअत कर चुके है (दीक्षित हो चुके हैं) उन्होंने अगर बैअत करने के बाद कोई ऐसा काम किया है जो धर्म और तरीके के (रूहानियत की तालीम के, शिष्टाचार के) खिलाफ़ होता तो उससे रंजीदगी फ़रमाते (अप्रसन्नता प्रकट करते) और कभी-कभी ज़ाहिरी तौर पर (प्रकट रूप में) ख़फ़ा हो जाते । मगर दूसरे साहबान से (जो दीक्षित नहीं थे) नाराज नहीं होते थे । इतना फर्क़ समझ लेना चाहिए ।''
हुज़ूर महाराज के आध्यात्मिक जीवन की कुछ घटनाएँ
हुज़ूर महाराज ने महात्मा रामचन्द्र जी को आचार्य पदवी देते समय एक जलसा (भण्डारा) किया । उसमें सभी सम्प्रदायों के महापुरुष (सन्त महात्मा) पधारे । हिन्दू, सिक्ख, ईसाई, नानकपंथी, कबीरपंथी, जैन, बौद्ध इत्यादि सबके सामने हुज़ूर महाराज ने महात्मा रामचन्द्र जी को पेश किया और फ़रमाया कि सारी उम्र में मैंने यह वृक्ष (आध्यात्मिक शिष्य) तैयार किया है । आप साहबान इसकी आध्यात्मिक स्थिति को देखकर जो रूहानियत की तालीम दी गयी है, उसकी पुष्टि कर दें और यदि सन्तुष्ट न हों तो पुष्टि न भी करें या किसी प्रकार के सुधार के लिए कोई सुझाव देना चाहें तो दे दें । सब लोग ध्यान में बैठ गये । हुज़ूर महाराज महात्माजी से बोले, ''बेटा पुत्तू लाल (महात्माजी के घर का नाम)- इन सब साहबान को तवज्जोह दो और जो भी सवाल करें उसका उत्तर दो । परमात्मा तुम्हें कामयाबी दे ।'' महात्माजी ने तवज्जोह देना शुरु किया । पहले तो एक आनन्द महसूस होने लगा, फिर धीरे-धीरे सब लोग विचार शून्य हो गये । अन्त में सिवाये परमात्मा की याद के कोई भी विचार शेष न रहे । सभी वंश के महापुरुष (नक़्शबन्दिया सिलसिले की गुरु परम्परा के सभी सन्तजन) जलसे में बैठे दिखाई देते थे । धीरे-धीरे प्रकाश दिखलाई देने लगा । फिर केवल प्रकाश ही प्रकाश रह गया । सभी चीजें नजर से ओझल हो गयीं । न कहीं जमीन न आसमान । एक नूर ही नूर था, जो सब की जान थी और उसमें एक अजीब आकर्षण और प्रेम था । सब उसमें मस्त थे । एक निहायत सुहावनी नाम की गूँज सुनाई देती थी । सब की तबियत बेकरार थी । इस प्रकाश में जी चाहता था कि शरीर टूटकर आत्मा में समा जाये । आँखों में आँसू जारी थे । सब उस नूर के प्रेम में द्रवित हो रहे थे । थोड़ी देर में हालत बदली, प्रकाश धीरे-धीरे नजर से ओझल होने लगा । होश भी था और बेहोशी भी थी । जो हालत उस समय थी, वह वर्णन से बाहर थी । हुज़ूर महाराज ने महात्मा रामचन्द्र जी से फ़रमाया- 'बस, अब बन्द करो ।' धीरे-धीरे सबने आँखें खोल दीं । सबने एक साथ बड़ी प्रसन्नतापूर्वक फ़रमाया, 'इन्होंने (महात्मा रामचन्द्र जी ने) कमाल हासिल किया है और सत्-पद तक रसाई ही नहीं, उसमें लय अवस्था भी प्राप्त कर ली है ।' उन महापुरुषों में से एक ने महात्माजी से प्रश्न किया कि, शुक्र किसे कहते हैं ? महात्माजी ने उत्तर दिया, 'परमात्मा की देन का उचित प्रयोग धर्मशास्त्र के अनुसार करना ही शुक्र है ।' सबने एक साथ हुज़ूर महाराज द्वारा महात्माजी को दी गयी रूहानियत की तालीम का सहर्ष समर्थन किया । फिर जलसा समाप्त हो गया ।
एक दिन की बात है महात्मा रामचन्द्र जी महाराज अपने पूज्य गुरुदेव हुज़ूर महाराज के साथ फर्रुखाबाद शहर से फतेहगढ़ वाली सड़क पर टहलते हुए चले गये । रास्ते में वह अपने दुःख दर्द तथा घर की आर्थिक कठिनाइयों की बातें हुज़ूर महाराज से करते जा रहे थे । बढ़पुर ग्राम के थोड़ा आगे सड़क की पुलिया पर पहुँच कर हुज़ूर महाराज के हृदय में दया का भाव उमड़ आया । उसी पुलिया पर दोनों बैठ गये । बड़े प्रेम से अपना सीधा हाथ महात्माजी के कन्धे पर रख दिया और फ़रमाया कि, 'तुम बड़े भाग्यशाली हो । परमपिता परमात्मा का कृतज्ञ होना चाहिए कि तुमने बहुत सस्ते दामों वह बड़ी दौलत (रूहानी दौलत) हासिल कर ली, जिसका कोई मोल नहीं हो सकता ।' इसके बाद कहा, 'अपने चारों ओर देखो ।' महात्माजी कहा करते थे कि एक अजीब दृश्य सामने था । चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था, जिसमें एक अजीब आनन्द और आकर्षण था, जो वर्णन में नहीं आ सकता । सारी सृष्टि, घर-दीवाल, जीव-जन्तु सारे प्राणी उसी प्रकाश में नाचते हुए दिख रहे थे । अजीब मस्ती सब पर छायी हुई थी । महात्माजी ने अपनी यह हालत हुज़ूर महाराज से वर्णन कर दी । उन्होंने फ़रमाया, 'शुक्र है, रास्ता ग़लत साबित नहीं हुआ । यही तुम्हारा असल है और यही लक्ष्य है । इसमें ही अपने को गुम (लय) कर दो ।' महात्माजी कहा करते थे कि जब मैं सैर के लिए जा रहा था, उस समय दुनियाँ और उसकी चिन्ताएँ मेरे साथ थीं और जब मैं वापिस हुआ तो दुनियाँ और दुनियाँ की सारी चिन्ताएँ सदा के लिए छूट गयीं और उनकी जगह ईश्वर प्रेम ने ले ली ।
एक समय हुज़ूर महाराज दवा कराने के लिए कानपुर गये थे । वहीं ठहर कर हुज़ूर महाराज इलाज करा रहे थे । महात्मा रामचन्द्र जी हर शनिवार शाम की गाड़ी से हुज़ूर महाराज की सेवा में हाज़िर हुआ करते थे और इतवार रात की गाड़ी से लौट आते थे । शहर फर्रुखाबाद में उस समय रेल्वे स्टेशन की सड़क पर पंडा बाग के मुहल्ले में एक शाह साहब रहा करते थे और इस वजह से वह हुज़ूर महाराज के विरुद्ध रहते थे कि हुज़ूर महाराज बगैर धार्मिक पक्षपात तथा संकीर्णता के, आत्मिक विद्या की दौलत हिन्दुओं में लुटाने में संकोच नहीं करते थे, और उन जैसे मुसलमान दोस्तों व अज़ीज़ों को अपनी मजलिस व सोहबत से उन लोगों की धार्मिक संकीर्णता व पक्षपात की भावना के कारण कई बार बाहर निकाल दिया था । उन शाह साहब की नजर महात्मा रामचन्द्र जी की तरफ बहुत थी, क्योंकि हुज़ूर महाराज की पाक (पवित्र) हुजूर्गाना शफ़क़त (आत्मीयता) व प्रेम तथा फ़ैज (उपकार) व बरकत (कल्याण भाव) उन पर होते हुए देखकर शायद वह शाह साहब बहुत कुढ़ते थे ।
एक दिन जबकि महात्माजी रेल्वे स्टेशन फर्रुखाबाद से कानपुर जाने के लिए तशरीफ़ लिए जा रहे थे कि अचानक पास की गली से शाह साहब चन्द मुरीदों (कुछ शिष्यों) के साथ सड़क पर आ गये । महात्मा रामचन्द्र जी के सलाम व आदाब बजा लाने पर शाह साहिब ने महात्माजी को रोक कर उनको अपनी छाती से खूब जोर से चिपटा लिया और बार-बार सीना दबाते रहे । फिर अपने मुरशिदों से यह कहते हुए छोड़ा, 'यही हज़रत मौलाना फ़ज़ल अहमद खाँ साहिब नक़्शबन्दी मुज़द्दिदी के मुरीद व खलीफ़ा हैं और इनका नाम रामचन्द्र है ।' इन शाह साहब की यह आदत थी और ऐसी शक्ति प्राप्त कर रखी थी कि यह दूसरों की आत्मिक शक्ति यानी रूहानी निस्बत सल्ब कर लेते थे (खींच लेते थे) और दूसरों को खाली करके छोड़ दिया करते थे । ज़नाब शाह साहब ने महात्मा रामचन्द्र जी के सीने को अपने सीने से चिपटा कर यही अमल किया था । महात्माजी स्टेशन की तरफ रवाना हो गये । इधर कुछ देर बाद शाह साहब के सीने में इस क़दर दर्द पैदा हुआ कि वह बढ़ता ही गया । तमाम रात शहर के अच्छे हक़ीम, वैद्य, डाक्टर बुलाये गये, लेकिन वह दर्द किसी की समझ में नहीं आता था । दवा भी बेचारी किस मर्ज पर लगती । आखिरकार लगभग चार-पाँच बजे प्रातः काल शाह साहब ने निहायत मजबूर होकर जब कोई बस न चला तब अपने किसी खास मुरीद से फ़रमाया कि, 'मुझे कानपुर मौलाना साहिब (हुज़ूर महाराज) के पास फौरन ले चलो, वरना मैं दर्द में खत्म हो जाऊँगा । यह तकलीफ नाक़ाबिले बरदाश्त हो रही है । जिस बुजुर्ग के मुरीद की ऐसी हालत हो तो वह बुजुर्ग साहिब कोई कुत्ब (उच्च कोटि के महात्मा) ही हैं, जैसा कि मैंने सुना है । इन हज़रत का वही मुरीद जिसे मैंने सीने से चिपटा कर यह हिम्मत की थी कि उसकी सारी निस्बत (आत्मिक शक्ति) सल्ब कर लूँ (खींच लूँ), इसकी बजाय वह हमारी ही निस्बत सल्ब करके ले गया और यह दर्द उसी वजह से है ।'
प्रातःकाल सुबह की गाड़ी से शाह साहब अपने मुरीदों के साथ हुज़ूर महाराज की सेवा में कानपुर हाजिर हुए । सलाम व आदाब के बाद शाह साहब रो पड़े । हुज़ूर महाराज ने शाह साहब को तकलीफ व परेशानी में देखकर फौरन एक चारपाई पर आराम से लिटा दिया । इतने में महात्माजी भी बाजार से हुज़ूर महाराज के वास्ते अनार ले कर हाज़िर हुए ही थे कि शाह साहब की नजर उन पर पड़ी । एकदम शाह साहब तड़प गये और हुज़ूर महाराज से अर्ज़ करने लगे कि, हजरत फ़नाफ़िश्शैख मुरीद तो बहुत देखे जाते हैं, लेकिन ऐसे कहीं-कहीं, कभी-कभी देखने में आते हैं, जिन में उनका शैख़ खुद फ़ना हो और फिर माशा अल्लाह क्यों न हो कि जब हुज़ूर की ऐसी आला नूरानी हस्ती जो फ़नाफ़िल मुरीद होने का खेल खेल सके अज़ीज रामचन्द्र को नसीब हुई । अभी दर्द में कराहते हुए ज़नाब शाह साहब अपना पूरा हाल अर्ज नहीं कर पाये थे कि हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया, 'ज़नाब शाह साहब, यह आपकी अमानत (धरोहर) मेरे तकिये के नीचे हिफाजत से रखी हुई है । मालिके-कुल (ईश्वर से) मुआफ़ी माँगिये और तौबह कीजिए कि आगे से किसी के साथ ऐसा व्यवहार न करेंगे ।' ज़नाब शाह साहब ने उसी समय तौबह की । हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया, 'आँखें बन्द कर के अन्दर बातिन (हृदय) की तरफ मुतवज्ज़ोह हों' और खुद भी तवज्जोह में शामिल हो गये । थोड़ी देर बाद ज़नाब शाह साहब ने अपनी खोयी हुई दौलत अपने में पुन: वापस ही नहीं पायी, बल्कि अतिरिक्त नूरानियत (आत्मिक प्रकाश) भी प्राप्त किया । उन्होंने महात्माजी के सिर पर हाथ फेर कर बहुत दुआएँ दीं और उसी दिन अच्छे होकर वापस चले गये ।
महात्माजी फ़रमाते थे कि कायमगंज में एक सज्जन एक बुजुर्ग पीर के मुरीद (शिष्य) थे, किन्तु वह बुजुर्ग तक़मील याफ़्ता (पूर्ण अधिकार प्राप्त) न थे, अर्थात् उनकी तालीम पूर्ण अवस्था को न पहुँच सकी थी । यह शिष्य अपने पीर के बतलाये हुए अभ्यास तथा साधना से एक ऐसे मुकाम पर उन्नति कर के पहुँच गये, जिसको मुसलमान सन्त नफ़्स का मुक़ाम कहते हैं । इसी स्थान को शिव नेत्र का स्थान भी कहते हैं । कामदेव की बैठक व समाधि यहीं पर रहती है । वह अभ्यासी जब उस स्थान पर आन्तरिक अभ्यास के द्वारा चढ़ाई करके पहुँचे तो उनके गुरुदेव के बस की बात न थी कि अपने शिष्य को उस मुकाम से पार करा कर आगे ले जाते । इसी बीच वह शिष्य एक दिन अपने किसी सम्बन्धी के घर एक उत्सव में गये । अकस्मात वहाँ पर एक वेश्या के नाच और गायन में भी उनको सम्मिलित होना पड़ा । जो लोग वहाँ एकत्र हुए थे, उसमें से अधिकांश शहबत-परस्त (कामातुर) थे । उन लोगों के संग रहने तथा वहाँ के खान-पान का भी प्रभाव उन शिष्य पर पड़ा । फलस्वरूप उनमें एक रात काम-शक्ति की उत्तेजना इतनी भड़क उठी कि वह कुछ दिनों परायी स्त्रियों को पकड़ने को दौड़ते थे और जब वह पकड़ में न आती थीं तो जानवरों की ओर संभोग के लिए दौड़ते थे । उनको ऐसा करने में किसी प्रकार की लज्जा नहीं आती थी । इनके घर वाले सभी अत्यन्त दुःखी और परेशान हो गये थे । कुछ दिनों बाद उन्हें ज़ंजीरों से बाँध दिया गया । इन्हीं शिष्य के चाचा कायमगंज में महात्मा रामचन्द्र के साथ कचहरी में काम करते थे । उन्होंने बहुत दुःखी होकर महात्माजी को सब हाल बताया । महात्माजी संध्या को जाते समय उनको हुज़ूर महाराज के पास ले गये । हुज़ूर महाराज ने सब हाल सुन कर बड़ा अफसोस जाहिर किया और फ़रमाया कि उस बेचारे की इतनी भूल अवश्य है कि वह नामुकम्मिल (अपूर्ण) पीर से बैअत हुए (दीक्षा ली), जो उस मुक़ाम से निकालने की हिम्मत और शक्ति नहीं रखते हैं । वह शिष्य बेचारा उस स्थान से खुद नहीं पार हो सकता था । हुज़ूर महाराज दूसरे दिन महात्माजी को और चच्चाजी महाराज को साथ लेकर उस पागल के घर गये । जब हुज़ूर महाराज वहाँ पहुँचे, तब उस पागल की बुरी दशा थी । वह अपने आपे में नहीं था । उसके कुटुम्ब के सभी लोग बहुत ही दुःखी थे ।
हुज़ूर महाराज सामने एक खाट पर बैठ गये और अपनी दाहिनी ओर महात्मा रामचन्द्र जी को और बायीं ओर चच्चाजी महाराज को बैठाया । हुज़ूर महाराज ने महात्माजी को उस पागल के लिए एक विशेष प्रकार की तवज्जोह देने के लिए हिदायत दी । थोड़ी ही देर में वह शान्ति पा कर ऐसा बेसुध हो गया, मानों गहरी नींद आ गयी हो । फिर हुज़ूर महाराज ने एक दूसरे प्रकार की तवज्जोह देने के लिए महात्माजी को आदेश दिया । एक घण्टे के बाद उस पागल ने आँखें खोली और होश आने पर उसने हुज़ूर महाराज को पहचाना, अत्यन्त नम्रता पूर्वक उनको प्रणाम किया । हाथ मिलाने के लिए उसने हाथ उठाये । हुज़ूर महाराज ने 'अलहम्दु लिल्लाहि' (सब तारीफ़ें अल्लाह के लिए हैं) कह कर स्वयं हाथ मिलाये और महात्माजी के सिर पर हाथ रखकर कहा 'शाबाश' ! हुज़ूर महाराज की आज्ञानुसार महात्माजी लगभग दो सप्ताह तक निरन्तर वहाँ जाकर उसको तवज्जोह देते रहे । फिर वह बिलकुल ठीक हो गया और हुज़ूर महाराज से बड़ी सद्भावना और प्रेम के साथ दीक्षा प्राप्त की (बैअत हुआ) ।
एक उच्च घराने के एक मुसलमान युवक एक सुन्दर स्त्री से प्रेम करते थे और चाहते थे कि वह ब्याह कर ले । वह युवक प्राय: हुज़ूर महाराज के सत्संग में भी शामिल होते थे और उनसे अपनी इस मनोकामना पूरी होने के लिए आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते थे, लेकिन संकोच वश उनसे कह न पाते थे । एक रात्रि को लगभग दस बजे का समय था, पूर्ण चन्द्रमा प्रकाशमान था, सुन्दर चाँदनी में सत्संग हो रहा था । हुज़ूर महाराज अत्यन्त स्वच्छ व सफेद कुर्त्ता, सफेद किश्तीनुमा टोपी और पायजामा पहने हुए थे । आँखों में सुरमा लगा हुआ था और बेला चमेली के कुछ हार भी पास में ही रखे थे । हुज़ूर महाराज ने ऐसे सुहावने समय में अचानक अपनी सफेद दाढ़ी और मुँह पर बड़े नाज़ व अन्दाज़ से हाथ फेर कर उन मुसलमान युवक से कहा, 'अमाँ तनिक इधर भी तो देखो, क्या वह औरत इससे भी ज्यादा हसीन है ?' हुज़ूर महाराज के इस मनमोहिनी अन्दाज से अकस्मात् उन नौजवान के दिल पर ऐसा आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा कि वह हुज़ूर महाराज के चेहरे पर टकटकी लगाकर कुछ देर तक देखते रहे और फिर इस प्रकार शान्त हो गये जैसे पत्थर की मूर्ति सामने रखी हुई हो । बस, उसी क्षण से उस औरत की मुहब्बत उन नौजवान के दिल से निकल गयी और हुज़ूर महाराज का प्रेम उनके दिल में समा गया । महात्मा रामचन्द्र जी इस घटना को सुनाते समय प्राय: एक जज़्बी हालत में हो जाते थे और यह कहते थे कि, 'मैं भी उस मौक़े पर हुज़ूर महाराज की खिदमत में हाजिर था और मेरे ऊपर एक ऐसी बिजली गिरी कि सम्भव था मेरे जीवन की लीला ही उस हुस्न हक़ीक़ी (ईश्वरीय सौन्दर्य) के दर्शन में समाप्त हो जाती । वह हालत मेरे जीवन का ऐसा रहस्य है जिसने फ़नाफ़िश्शैख की हालत से आगे बढ़ा कर फ़नाफ़िल मुरीद की नियामत से भरपूर कर दिया था ।' फ़नाफ़िश्शैख का अर्थ है गुरुदेव से इतना प्रेम तथा उनमें इतना विश्वास होना कि अपने सम्पूर्ण जीवन तथा शख़्सियत (व्यक्तित्व) को गुरु में लय कर देना और बाहरी और भीतरी रूप में उसी के स्वरूप में ही रहना तथा अपने को पूर्ण रूप से गुरु के स्वरूप में मिटा देना । फ़नाफ़िल मुरीद से यह आशय है कि अपने गुरु को इतना रिझा लेना और अपना लेना कि गुरु अपने मुरीद (शिष्य) में स्वयं विलीन होकर रहे । ऐसे मुरीद को ही रूहानियत के क्षेत्र में 'मुराद' कहते हैं और परमपिता की प्रेरणा और कृपा से ही कुछ बिरले होनहार संस्कारी मुरीदों को यह पद प्राप्त होता है ।'
नवाब शमसाबाद के एक रिश्तेदार एक स्त्री पर मोहित हो गये थे और उससे विवाह करना चाहते थे, लेकिन वह स्त्री तैयार न थी । वह सज्जन हुज़ूर महाराज से सहायता लेने के लिए आये । आपने एक वज़ीफ़ा (मंत्र) बतला दिया और एक अभ्यास करने के लिए कहा । कुछ दिनों बाद उन सज्जन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि उस स्त्री से मुहब्बत का ख्याल ही उनके दिल से जाता रहा और उसकी जगह हुज़ूर महाराज की मोहब्बत उनके दिल में बस गयी । फलस्वरूप वह हुज़ूर महाराज के हाथों बैअत हुए और अन्त समय तक इस रास्ते में कायम रहे । यह थी हुज़ूर महाराज की आला रूहानी हस्ती, जिसने बहुत सी जिन्दगियों को तबाह होने से बचा लिया ।
एक दिन महात्मा रामचन्द्र जी हुज़ूर महाराज के दर्शनों के लिए रायपुर जा रहे थे । रास्ते में गायें चर रही थीं । किसी कारण से वे गायें भड़क गयीं और सब तरफ से महात्माजी पर हमला कर दिया । वहाँ पर कोई आदमी भी आपकी सहायता को न था । हाथ में केवल एक कमजोर छतरी थी । मौत निश्चित थी । आपने अपना अन्त समय जान कर आँखें बन्द कर ली और अपने गुरुदेव (हुज़ूर महाराज) का ध्यान करने लगे । जब आपने आँखें खोली तो देखा कि उनके हाथ की छतरी खुली हुई थी और गायें एक तरफ को भागी जा रही थीं । आपने परमात्मा को धन्यवाद दिया और हुज़ूर महाराज की खिदमत में पहुँच कर सारा हाल उनसे अर्ज किया । हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया, 'परमात्मा को धन्यवाद दो, यह सब उसी की दया थी ।'
एक दफा हुज़ूर महाराज जी कायमगंज से रायपुर जा रहे थे । रास्ते में एक गाँव पड़ता था । वहाँ पर बहुत से आदमी खड़े थे । हुज़ूर महाराज चाहते थे कि इन लोगों से बचकर निकल जायें लेकिन कुछ आदमियों ने, जो आपको जानते थे, देख लिया और बड़ी विनम्रता पूर्वक बुलाया । इसलिए आपको विवश होकर उन लोगों के पास जाना पड़ा । वहाँ पर एक सुन्दर स्त्री खड़ी थी और कह रही थी कि, 'मैं जिन्न हूँ और इस स्त्री पर आसक्त हूँ ।' इसे लेकर ही मैं जाऊँगा । कुछ लोग झाड़ा-फूँकी कर रहे थे और कुछ विभिन्न दवाइयों का प्रयोग कर रहे थे । लेकिन सब बेकार साबित हो रहा था । सभी लोग बहुत परेशान थे और समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें । हुज़ूर महाराज को देखकर सभी लोग उनसे यह प्रार्थना करने लगे कि उस स्त्री की सहायता करें और इस मुसीबत से उसको छुटकारा दिलायें । आपने पहले तो मना किया क्योंकि आप झाड़-फूँक के व तावीज इत्यादि के क़ायल नहीं थे और न कभी ऐसा करते थे । लेकिन जब लोगों ने बहुत आग्रह किया तो आपने एक काग़ज़ पर कुछ लिखा, उसको लपेटा और उसके एक सिरे को जलते हुए लैम्प पर रख दिया । कागज जलना था कि युवती चिल्लाने लगी, 'मुझको मत जलाओ, मैं जाता हूँ अब कभी नहीं आऊँगा ।' जिन्न हुज़ूर महाराज की खुशामद करने लगा । आपने कागज बुझा दिया, युवती होश में आ गयी और फिर कभी उसकी ऐसी हालत नहीं हुई ।
महात्मा रामचन्द्र जी नित्य संध्या को दफ़तर बन्द होने के बाद कायमगंज से रायपुर हुज़ूर महाराज के दर्शनों के लिए जाते और रात को लगभग 10 बजे वापस आते । रायपुर और कायमगंज के बीच 4 मील की दूरी है । यह उनका नित्य का नियम था । एक दिन बहुत जोर की वर्षा आरम्भ हो गई । चारों तरफ काले बादल छाये हुए थे । सब ओर अंधेरा ही अंधेरा था । हाथ को हाथ नहीं सूझता था । यकायक मूसलाधार वर्षा होने लगी । महात्मा रामचन्द्रजी तथा उनके छोटे आई महात्मा रघुबर दयाल जी दोनों रास्ते में ही थे । आगे जाना बिलकुल असम्भव हो गया । विवश होकर आप दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गये । वृक्ष में पत्ते भी नहीं थे जो वर्षा के पानी से बचाते । आपने अपने छोटे भाई महात्मा रघुबर दयाल जी (चच्चाजी महाराज) से फ़रमाया, 'आँखें बन्द कर लो और गुरु महाराज का ध्यान करो और यह ध्यान करो कि वर्षा हो ही नहीं रही है ।' आप दोनों इसी ख्याल में बैठ गये और थोड़ी देर में अपने आप से बेखबर हो गये । कुछ देर बाद जब आँखें खुली तो क्या देखते हैं कि चारों ओर पानी ही पानी भरा हुआ है लेकिन जिस जगह आप दोनों बैठे हुए थे वह जगह बिलकुल सूखी थी । जब आप दोनों रायपुर पहुँचे तो हुज़ूर महाराज ने पहला प्रश्न यही किया कि, 'तुम लोग भीगे तो नहीं?' आपने सारा हाल निवेदन किया । हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया, 'जिस पर परमात्मा की कृपा होती है प्रकृति की शक्तियाँ भी उस पर कृपा करती हैं ।' फिर फ़रमाया तुम लोग इस वर्षा और तूफान में भी आ गये । वर्षा और तूफान भी तुम को मेरे पास आने से न रोक सके । तुम्हारा विश्वास और प्रेम अथाह है । मैं तुम दोनों से बहुत प्रसन्न हूँ । परमात्मा तुम दोनों पर सदा अपनी विशेष कृपा और दया दृष्टि रखे ।
एक बार महात्मा रामचन्द्र जी फतेहगढ़ से अलीगढ़ तहसील को जा रहे थे । गंगा पार होते ही संध्या हो गयी और अलीगढ़ अभी आठ मील था । आप बहुत घबरा गये, क्योंकि रात अँधेरी थी । आदमी न आदमज़ाद, सुनसान गंगा का मैदान । आपने हुज़ूर महाराज का ध्यान किया । क्या देखते हैं कि एक वृद्ध पुरुष आगे-आगे चले जा रहे हैं । आपका साहस बंध गया । आप उन वृद्ध के पीछे-पीछे अलीगढ़ तक चले आये । अलीगढ़ की बस्ती के पास आने पर वह दृष्टि से ओझल हो गये ।
एक हिन्दू, सुनार कभी-कभी हुज़ूर महाराज के सत्संग में आ जाते थे और परमात्मा के विषय में बातचीत करते रहते थे । उनका यह ख्याल था कि परमात्मा कोई चीज नहीं है । भौतिक तत्वों के मिलने से जो शक्ति पैदा होती है, उसी का नाम परमात्मा रख लिया गया है । जब शरीर बेकार हो जाता है और भौतिक तत्व अलग अलग हो जाते हैं, वह शक्ति भी समाप्त हो जाती है और छिन्न-भिन्न हो जाती है, अन्यथा न कोई आत्मा है न परमात्मा । यही संसार सब कुछ है । न इससे आगे कोई है न पीछे । यह सब ख्याली बातें हैं । हुज़ूर महाराज उनको समझाते थे लेकिन उनके विचार वहीं बदले । एक दिन हुज़ूर महाराज को उन्होंने बुलाया । हुज़ूर महाराज ने देखा कि उनकी हालत खराब है और उनका अन्त समय निकट है । वह सज्जन हुज़ूर महाराज से कहने लगे कि अब मुझको ख्याल होता है कि कोई शक्ति अवश्य है । अब मुझको इसका कठोर दंड मिलेगा । हुज़ूर महाराज ने देखा कि यह सज्जन दुविधा में है और दुविधा बुरी बला है । आपने फ़रमाया 'तुम अपना ख्याल मत बदलो', उसी पर क़ायम रहो । आपने उनको अपनी तरफ देखने को कहा । क्षण मात्र में अपनी आत्म-शक्ति से उनकी हालत बदल दी । थोड़ी देर बार उनका देहान्त हो गया और उन्होंने शान्ति के साथ प्राण छोड़े ।
एक बार की घटना है कि महात्मा रामचन्द्र जी के साथियों ने गंगा के किनारे पिकनिक का कार्यक्रम बनाया । महात्माजी को भी उन लोगों ने साथ ले लिया । भोजन आदि से निवृत्त होकर गाना-बजाना होता रहा । उसके बाद भाँग घोटी गयी । सबने भाँग पी ली और महात्माजी को भी भाँग पीने के लिए मजबूर किया, यद्यपि उन्होंने साफ-साफ मना कर दिया और यह भी बतला दिया कि मैंने जीवन में कभी भाँग नहीं पी । जब बहुत कहने पर भी महात्माजी ने भाँग न पी तो उनके चार साथियों ने उनके हाथ-पैर पकड़ लिये और पंडित माता प्रसाद जो आपके साथियों में थे आपकी छाती पर चढ़ बैठे और जबरदस्ती भाँग पिलाने लगे । आपने बहुत मना किया, पर सबके न मानने पर चुप हो गये और गुरुदेव (हुज़ूर महाराज) के ध्यान में लग गये । अचानक उनका चेहरा तमतमा उठा और उस पर दाढ़ी और मूँछें दिखाई पड़ने लगीं तथा उनका चेहरा एकदम बदल गया । उनका यह स्वरूप देखकर पंडित माता प्रसाद घबरा कर हट गये और अपने साथियों को भी मना किया । सब साथियों ने उन्हें छोड़ दिया और अलग हट गये । थोड़ी देर बाद उधर से स्वामी ब्रह्मानन्द जी जो उस समय के महान सन्त पुरुष थे, निकले । जब उन्हें सारा हाल ज्ञात हुआ तो उन्होंने सब को बहुत फटकारा । शाम को जब सभी लोग वापस आ रहे थे, तब क्या देखते हैं कि हुज़ूर महाराज आ रहे हैं । महात्माजी ने बड़े अदब से प्रणाम किया । पंडित माता प्रसाद उन्हें देखते ही पहचान गये कि भाँग पिलाते समय महात्माजी का चेहरा जिनकी शक्ल में बदला था, यह वही बुजुर्ग हैं । दूसरे दिन पंडित माता प्रसाद महात्मा रामचन्द्र जी से प्रार्थना करके हुज़ूर महाराज की सेवा में गये । जीवन भर पंडित जी हुज़ूर महाराज तथा महात्मा रामचन्द्रजी के पास जाते रहे । उनके अतिरिक्त आपके बहुत से साथी भी सत्संग में शामिल हो गये ।
महात्मा रामचन्द्र जी ने एक बार फ़रमाया, 'हमारे सतगुरुदेव (हुज़ूर महाराज) का यह हाल था कि वह चलते-फिरते जिन से भी दुआ-सलाम का अवसर मिलता था, अपनी आत्मिक तवज्जोह उन सभी पर डाल दिया करते थे और फ़रमाया करते, 'अमाँ, इसमें मेरा क्या जाता है ? उस शख़्स में संस्कार पड़ जाता है । कभी न कभी, कहीं ना कहीं उभरेगा व काम आयेगा ही ।' हुज़ूर महाराज के इसी स्वभाव के सिलसिले में उनके गरुभाई ज़नाब हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब ने यह वाकया फ़रमाया था कि एक दिन वह हुज़ूर महाराज के साथ कहीं जा रहे थे । रास्ते में उनके बचपन के साथी मिले । वह आतिशबाजी बनाने का काम करते थे । आपने उन्हें दूर से ही देखकर उनका आधा नाम लेकर बुलाया और हँसते हुए कहने लगे कि, 'मैंने सुना है कि तुम वली हो गये हो, देखना अपने पुराने दोस्तों को न भूल जाना ।' यह बात उन्होंने हँसी में कही थी लेकिन बाद को वास्तव में उन्होंने अपने उस साथी को वली बना दिया ।
हुज़ूर महाराज के आखिरी वक्त में एक पंजाबी नौजवान पति-पत्नी उनकी सेवा में उपस्थित हुए । हुज़ूर महाराज ने उन्हें चन्द मिनट तवज्जोह देकर कामिल (पूर्ण) कर दिया और गुरु पदवी की इज़ाज़त भी दी । उस वक्त आप बीमार थे और इतने कमजोर हो गये थे कि तीन आदमी करवट लिवाते थे, परन्तु उनकी आवाज़ सुन कर आप अज़खुद उठ बैठे और हुक्म दिया कि 'किवाड़ खोल दो ।' उनको इजाजत देकर आप बोले, जाओ बस्ती में न रहना । स्त्री को साथ रखना । ईश्वर तुम्हारा निर्वाह करेगा । फिर वे कभी दिखाई नहीं दिए । परम पूज्य ज़नाब हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब ने एक बार की घटना बतलाते हुए फ़रमाया - 'जहाँ हम तीन शख़्स खड़े होकर नमाज पढ़ते थे, वहाँ पर हुज़ूर महाराज ने देखकर कहा कि यह तो तुम्हारी जगह है और यह उन दोनों साहबान की है ।' आपने अलग- अलग नाम लेकर बता दिया । मैंने अर्ज किया कि ज़नाब आपको यह किस तरह पता लगा ? आपने फ़रमाया कि, मियाँ इसके जान लेने में कौनसी ऐसी बात है, जब कि इत्र फरोश बता देता है कि यह फलाँ-फलाँ इत्र है । आपने एक शेर पढ़ा जिसका मतलब यह था कि किसी ने मिट्टी से पूछा कि तू बड़ी खुशबूदार है, तो उसने कहा कि मैं तो वही मिट्टी हूँ मगर वह बहुत खुशबूदार है जिसकी सोहबत में मैं रही हूँ । यह उसकी तारीफ है न कि मेरी । इसी तरह पर तिल्ली जिसमें बसायी जाती है, उसी की खुशबू आने लगती है ।
हुज़ूर महाराज एक दफा बदायूँ शहर गये हुए थे । आपने सुन रखा था कि बदायूँ में एक बड़े मज्ज़ूब मुसलमान निवास करते हैं । आपको उनके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी । उन महात्माजी की आयु भी लगभग 111 वर्ष की उस समय बतायी जाती थी । वह बुजुर्ग एक स्थान पर ज्यादा दिन नहीं रहते थे । बालकों का सा स्वभाव था ।
हुज़ूर महाराज उनको बदायूँ में खोजते-खोजते एक स्थान पर पहुँचे जो शहर से बाहर था । वहाँ भी उनको न पा कर वह बस्ती में लौट आये । एक हलवाई की दुकान पर ठहर कर कुछ मिठाई मोल लेने लगे । उस हलवाई की दुकान से मिला हुआ एक टूटा-फूटा खण्डहर सा दिखाई पड़ा । अकस्मात् हुज़ूर महाराज की नजर उधर चली गयी । क्या देखते हैं कि उस खण्डहर में एक टूटी-फूटी दालान में एक बहुत बूढ़े-बुजुर्ग कम्बल ओढ़े पड़े हुए हैं । हुज़ूर महाराज ने उस हलवाई से पूछा कि वह कौन बुजुर्ग पड़े हुए हैं । हलवाई ने बतलाया कि वह एक बहुत बड़े मुसलमान परमहंस हैं । हुज़ूर ने थोड़ी गरम जलेबियां एक दोने में ले जाकर अदब व आधीनता से उन परमहंस (मज्ज़ूब कलन्दर की सेवा में अर्पित की और सलाम अर्ज करके बड़े अदब के साथ खड़े हो गये । थोड़ी देर बाद उन परमहंस जी ने अपने नेत्र खोले । चेहरे तथा आँखों से ऐसा जलाल (तेज) टपकता था कि साधारण मनुष्य का साहस उनकी ओर देखने का नहीं पड़ सकता था । सफेद दाढ़ी बड़ी व सीधी । मूँछें तथा भौहों के बाल तक बिलकुल सफेद व बड़े-बड़े थे । बड़ा ही विशाल तेजस्वी चेहरा था ।
जब हुज़ूर महाराज ने देखा कि वह महात्माजी कुछ बोलते ही नहीं हैं और केवल कभी-कभी नेत्र खोलकर देख लिया करते हैं, तो आपने खड़े ही खड़े उन परमहंस जी की ओर अपनी आन्तरिक तवज्जोह की । इस पर वह बुजुर्ग उठ कर बैठ गये और ऐसी तवज्जोह फ़रमाई कि हुज़ूर महाराज को ऐसा मालूम हो रहा था मानों उनके भीतर बड़े ही वेग से चक्की चल रही हो । सम्भव था कि वह हुज़ूर महाराज को अपने रंग व जज्बे में ढाल देने की पूरी कोशिश कर जाते, क्योंकि आपका सारा अस्तित्व ही एक विवशता की अवस्था की ओर खिंचा जाता सा प्रतीत हो रहा था । तुरन्त हुज़ूर महाराज को यह अनुभव हुआ कि अचानक एक प्रकाश के पर्दे ने उन्हें पूरी तरह ढक दिया और अपने स्वरूप में उन्होंने अपने गुरु महाराज (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) को पूर्ण रूप से देखा ।
वह तपस्वी परमहंस महात्माजी एकदम बोल उठे कि, 'शाबाश, तुम बड़े होनहार हो । मालिक का बड़ा फ़ज़्लो करम (दया कृपा) तुम्हारे ऊपर है । सच तो यह है कि फ़नाफ़िश्शैख (गुरु में लीन शिष्य) बहुत देखने में आते हैं, परन्तु फ़नाफ़िल मुरीद अर्थात ऐसे प्रेमी शिष्य जिसमें उनके गुरुदेव स्वयं ही वास करते तथा लीन (फ़ना) रहते हों, बहुत कम देखने में आते हैं । वाह, मुरीद भी हो तो तुम्हारे जैसा और पीरो मुर्शिद (सतगुरुदेव) भी ऐसे हों जैसे कि तुम्हारे हैं । जाओ, तुम्हारी जात से एक आलम (संसार) मुनव्वर (प्रकाशमान) हो जायेगा ।'
जब हुज़ूर महाराज बदायूँ से लौट कर अपने पूज्य गुरुदेव ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की सेवा में हाजिर हुए तो आपने उनसे पूरा हाल बयान किया । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने सारा हाल सुन कर फ़रमाया- 'बेटे, मज़्जूब वह होते हैं जो प्रेम के जज़्बे में मस्त व डूबे रहते हैं । दूसरे प्रकार के मज़्जूब कलन्दर कहलाते हैं । कलन्दर का दर्जा (पद) हंस व परमहंस का होता है ।' जब अपनी क़ुव्वत (क्षमता) से अधिक प्रेम का जज़्बा भड़क जाने पर या उस प्रेम के जज़्बे में भी जोर का प्रकाश उदय होने पर दिमाग उलट जाता है और बेकार-सा हो जाता है तब इसी हालत में बने मज़्जूब अवधूत कहलाते हैं । इनमें न तो अपना स्वयम् का ही शऊर (समझ बूझ) रहता है और न असल ध्येय का ही । कलन्दर, जिसको हंस या परमहंस कहते हैं, इस मज़्जूब (अवधूत) की अवस्था में रहते हुए भी उससे कहीं ऊँची व पवित्र गति पर रहते हैं । वह अपने प्रियतम (परमात्मा) की गोद व नज़र में बालकों व बच्चों के समान रहकर परमात्मा के प्यार व आनन्द में रहने का शऊर (ज्ञान) रखते हैं । वह जज़्ब या प्रेम के मार्ग के बादशाह होते हैं ।
इन दोनों प्रकार के महात्माओं में मज्ज़ूब (अवधूत) स्वयम् अपनी उन्नति करने में विवश होते हैं । परन्तु कलन्दर (हंस, परम हंस) की गति वाले महात्मा उन्नति करते रहते हैं । इन दोनों प्रकार के बुज़ुर्गों की संगति व तवज्जोह से या तो दूसरा मनुष्य वैसा ही मस्त व रूहानी पागल-सा बन जाता है या जिसके पास कुछ अधिक कमाई की चीज होती है वह सब उनकी ओर खिंच कर समाप्त हो जाती है । इसकी वजह यह है कि ऐसे बुजुर्ग अपना जज़्ब एकदम इतना झोंक व उंडेल देते हैं कि जो क़ाबू व सहन से कहीं बाहर होता है और परिणाम यह होता है कि वह बेचारा अनायास जल्दी ही रूहानी पागल-सा होकर एक ठस हालत (जड़ता की दशा) में हो जाता है । उसके दिल व दिमाग उलट जाते हैं या अगर इन बुज़ुर्गों की मौज दूसरी ओर चली गयी तो वह सारी आत्मिक कमाई को खींच कर व चूस कर उस शख़्स को निरा खोखला करके छोड़ देते हैं । ऐसे बुज़ुर्गों की सोहबत में लाभ की बजाये हानि का अन्देशा सदा ही बना रहता है । इसलिए उनसे बचना जरूरी है । पता नहीं उनकी मौज में किस समय क्या आ जाये । फिर भी अगर मजबूरन कहीं ऐसा अवसर आ जाये तो उन से नजर मिलाकर कभी भी बात न करें । सीने के सामने सीना लगाकर या रखकर कभी उनके सामने न रहें और अपना दिल उनके दिल के सामने कदापि न ले जायें ।
इन बातों का ध्यान रखने वाले और मुख्य रूप से ऐसे अभ्यासी भक्त जो फ़नाफ़िश्शैख (गुरु की जात में लीनता) की अवस्था में रहते हैं ऐसे ख़तरों से बचे रहते हैं । जहाँ प्रेमी भक्त अपने स्वरूप व जात को अपने सतगुरु के स्वरूप व जात में पूर्णतया फना व लीन कर देते हैं, या जहाँ पर गुरु के स्वरूप या जात को पूर्ण रूप से अपने में धारण कर लेते हैं, वहाँ पर यह मज्ज़ूब व कलन्दर ऐसे मुरीदों के सम्पर्क में आकर चौकन्ना हो जाते हैं ।
ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने ये बातें हुज़ूर महाराज को समझाने के बाद फ़रमाया, 'अमाँ, तुम्हारे संग भी यह मामला आन पड़ा था । वहाँ पर उन कलन्दर बुजुर्ग ने एकदम तुम पर फ़ैज उड़ेलना शुरु कर दिया था और वह भी इतने जोर का था और इतना अधिक था कि तुम उसे सहन न कर सके । बहुत मुमकिन था कि वह तुम को उसी में बहा व डुबा लेते, लेकिन उसी समय वह चीज़ वहाँ खुद पहुँच गयी, जिसकी जात को तुमने पूर्ण प्रेम से अपनी जात में बसा रखा था । अब चूंकि तुम्हारा आत्मिक स्रोत गुरु के स्रोत से एक हो रहा था इसलिए वह बुजुर्ग तुम्हारी समुन्दर-सोख़ निस्बत को देखकर उल्टे तुम्हारे क़ायल हो गये । अब वह फ़ैज की गठरी जो वहाँ तुम पर उड़ेली गई थी मेरे पास रखी है और धीरे-धीरे तुम को देकर पचा दी जायेगी ।' शुरु में हुज़ूर महाराज की सोहबत में गिनती के चार लोग सत्संग में आते थे । उनमें से एक नौजवान ऐसे थे जो हुज़ूर महाराज के सत्संग के अलावा एक तवायफ (वेश्या) की सोहबत में भी शरीक होते थे । कुछ दोस्तों ने इस बात की सूचना हुज़ूर महाराज को दी । आपने फ़रमाया, 'अब जब वह वहाँ जायें मुझे बतलाना ।' अगली बार जब वह महाशय वेश्या के घर की ओर मुड़े तो उनके दोस्तों ने गुप्त रूप से इसकी इत्तिला हुज़ूर महाराज को दी । हुज़ूर महाराज ने स्नान किया । धोबी के यहाँ का धुला कुर्त्ता-पायजामा निकाला और उन पर इत्र वगैरह लगाकर उनको पहना । आँखों में सुरमा लगाया (यही उस वक्त के मर्दों का श्रृंगार होता था) और उस तवायफ के घर की ओर चल दिए । साथ में उनके चन्द मुरीदैन भी थे । बस्ती छोटी थी अत: तवायफ भी आपको जानती थी । वह उन्हें देखकर ताज्ज़ुब में पड़ गई कि हुज़ूर इधर कहां ! हुज़ूर महाराज के शौकीन शागिर्द वहाँ मौजूद थे । आपको देखकर बहुत घबरा गये । तवायफ ने बड़ी विनम्रता और इज्जत के साथ आपको बैठाया और अर्ज़ किया, 'क़नीज़ (सेविका) के लायक़ क्या खिदमत है जिसके लिए आपने यहाँ आने की तकलीफ फ़रमाई ? इस लौंडी से जो खिदमत हो सकती आपके दौलतखाने पर बजा लाती ।' आपने फ़रमाया, 'हम गाना सुनना चाहते हैं । कोई बढ़िया गाना सुनाओ ।' तवायफ़ों को हर किस्म के दो चार गाने याद ही रहते हैं । उसने अपने अनुमान से आप के लायक कुछ गाने सुनाये । सुनने के बाद आपने फ़रमाया, 'तुम्हारी रात भर की उज्रत (पारिश्रमिक) क्या है ?' हम आज रात तुम्हारे यहाँ ठहरेंगे । तवायफ सक्ते में आ गई (किंकर्तव्य विमूढ़ की सी हालत हो गई) । जो मुरीदैन हुज़ूर महाराज के साथ आये थे वे सब अत्यधिक अचम्भित हुए कि हुज़ूर यह क्या फ़रमा रहे हैं । करीब साठ साल की उम्र, चाँदी सी सफेद बालों वाली घनी लम्बी दाढ़ी और इतने बड़े फ़कीर, इस पर भी आप इस तवायफ के यहाँ ठहरेंगे । ख़ैर, उसने अपनी उज्रत बतलाई, शायद दो रुपये । आपने पेंट से दो रुपये निकाल कर फ़ौरन उसको अदा किये और मुरीदैन से कहा, 'भाई, तुम लोग अब जाओ, हम यहाँ ठहरेंगे ।'
आपने तवायफ से कहा, 'आज रात भर के लिए तुम मेरी हो चुकी । अब जो मैं कहूँगा वह तुम को मानना होगा । तो मेरा पहला कहना यह है कि तुम्हारे यह ज़ेवरात (गहने) मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है इन्हें उतार डालो और जाकर ग़ुस्ल (स्नान) कर लो ।' उसने गहने उतार दिए और नहाने चली गई । आप अपने साथ अपनी पत्नी का एक जोड़ा पायजामा-कुर्त्ता और दुपट्टा ले गये थे । आपने तवायफ से फ़रमाया, 'अच्छा अब मेरे साथ पाँच रक़अत नमाज पढ़ो ।' तवायफ परेशान थी कि दो रुपये में क्या परेशानी मोल ले ली । उसने अर्ज़ किया कि नमाज तो न कभी मैंने पढ़ी और न मेरी माँ ने पढ़ी । मैं तो जानती भी नहीं कि नमाज कैसे पढ़ी जाती है । हुज़ूर ने फ़रमाया, 'आज रात तुम मेरी खिदमत में हो, जो मैं कहूँ वह तुम्हें मानना होगा ।' अच्छा, देखो तुम्हें नमाज अदा करनी नहीं आती तो कोई फिक्र की बात नहीं । जैसे मैं उठूँ-बैठूँ वैसे तुम भी मेरे साथ उठो-बैठो । तवायफ सोचने लगी, अच्छी क़वायद सर पर पड़ी दो रुपये में । ख़ैर मजबूरी थी, हुज़ूर महाराज की नकल करने लगी । जब हुज़ूर महाराज सिज़्दे में गये (जमीन पर सिर झुकाया) तो तवायफ ने भी माथा टेका । उसी सिज़्दे में हुज़ूर महाराज ने अल्लाह से दुआ की, 'या खुदा, मैंने तेरे फज़्लो करम से यहाँ तक ला दिया, अब तू जाने यह जाने ।' इसके बाद हुज़ूर महाराज उठ कर अपने घर तशरीफ ले गये लेकिन वह तवायफ सिज़्दे में ही बेहोश पड़ी रही । सुबह के वक्त जब उसकी माँ वगैरह ने उसे जगाया तब वह उठी । पहले तो वह भौंचक्की होकर इधर-उधर देखती रही । इसके बाद अपनी माँ से बोली, 'मुझसे जो कुछ भी कमाई हो सकी वह मैं तुम्हें दे चुकी । तुम्हारे गहने भी यह रक्खे हैं । यह कपड़े जो पहने हूँ यह तुम्हारे नहीं है । बस अब मैं चली ।'
हुज़ूर महाराज के मकान के सामने एक नीम का पेड़ था । करीब दस-ग्यारह बजे दिन का समय था । वह उसी पेड़ के नीचे आकर बैठ गई । हुज़ूर महाराज ने देखा तो अपनी धर्मपत्नी से फ़रमाया, 'देखो, बाहर एक भूखी-प्यासी लड़की बैठी है । उसे अन्दर बुला लो और खाना खिला दो ।' जब वह आ गई और भोजन कर चुकी तो हुज़ूर ने उससे दरियाफ़्त किया, 'उस घिनौनी जिन्दगी से निकल कर एक पाक और बाइज़्ज़त जिन्दगी बसर करने का इरादा है या नहीं ?' वह फौरन ऐसा पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए रज़ामन्द हो गई । तब हुज़ूर महाराज ने उससे गुनाहों के लिए दिली तौबा कराई और उस मुरीद को बुलाकर समझाया कि अगर तुम्हें यह लड़की पसन्द है तो इससे निकाह (विवाह) करके एक पाक जिन्दगी बसर करो । दोनों का निकाह पढ़वा दिया । कुछ दिनों में वह दोनों हुज़ूर महाराज के हाथों बैअत (दीक्षित) हुए और एक भक्तिमय पवित्र जीवन व्यतीत करने लगे ।
हुज़ूर महाराज की एक ख़ादिमा (सेविका) थी । जब उसका शरीरान्त हो गया, तो उसे दफ़ना दिया गया । एक बार उसकी कब्र के पास से आपको निकलना हुआ । आपने उसके लिए फातहा पढ़ दिया और कुछ तवज्जोह आपकी उसकी तरफ ख़ुद व ख़ुद हो गई । बरसों बाद उधर से एक बड़े सूफ़ी फकीर गुज़रे । आपने महसूस किया कि एक कब्र से किसी बड़े फकीर की तवज्जोह की सदा (ध्वनि) आ रही है । आपने लोगों से दरियाफ्त किया तो यही पता चला कि यह तो एक तवायफ की कब्र है । इस जवाब से आप सन्तुष्ट नहीं हुए । आप लोगों से दरियाफ्त करते ही गये । आख़िर में एक बहुत बूढ़े आदमी ने बतलाया कि एक सूफ़ी मौलाना (हुज़ूर महाराज) की एक ख़ादिमा यहाँ दफन है । उसकी कब्र को ठीक से न पहचान सकने की वजह से इस तवायफ की कब्र को ही उस ख़ादिमा की कब्र समझ कर फातहा पढ़ दिया । इस प्रकार इस तवायफ की रूह को मग़्फिरत (मोक्ष) मिल गई ।
यह उस समय की घटना है जब महात्मा रामचन्द्र जी महाराज (ज़नाब लालाजी साहिब) हुज़ूर महाराज के निकट सम्पर्क में नहीं आये थे । एक बार ज़नाब लाला जी साहिब की एक लड़की बीमार पड़ गई । उसकी हालत काफी नाजुक हो गई । आप घर से बाहर किसी डाक्टर को लेने के लिए निकले । संयोग से उधर से हुज़ूर महाराज आ रहे थे । उन्हें देखकर ज़नाब लालाजी साहिब ने बड़े अदब के साथ उनसे सलाम अर्ज़ किया । हुज़ूर महाराज ने पूछा, इतनी तेजी के साथ कहाँ जा रहे हो ? ज़नाब लालाजी साहिब ने अर्ज किया घर में लड़की की तबियत ज्यादा खराब है, इसलिए किसी डाक्टर को लेने के लिए जा रहा हूँ । हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया, शुरु मैं मैंने कुछ तिब (चिकित्सा शास्त्र) पढ़ा था । चलो मैं तो देखूँ, शायद मर्ज समझ में आ जाये तो कुछ दवा दे दूँ । आप उन्हें लिवा ले गये । हुज़ूर महाराज ने लड़की की नब्ज देखी और कहा, बेटी ठीक हो जायेगी, चिन्ता मत करो । उन्होंने कुछ दवा लेकर दी और कहा कि माँ के दूध में घोल कर दे दो । पाँच मिनट बाद दरियाफ़्त किया, कैसी हालत है ? ज़नाब लालाजी साहिब ने बतलाया कि अब हालात ठीक है । बस धीरे-धीरे हुज़ूर महाराज के सामने ही लड़की की हालत सम्हलने लगी । तब तक खाने का वक्त हो गया था । ज़नाब लालाजी साहिब के यहाँ कई वक्त से खाना नहीं बना था, ऐसी तंगहाली थी । लेकिन आप की इतनी साख थी कि उधार सामान मिल सकता था । लिहाज़ा आप कुछ इन्तजाम करने चले । हुज़ूर महाराज ने फौरन रोक लिया और फ़रमाया, 'बाजार से कुछ ले आने की जरूरत नहीं है, घर में जो कुछ हो ले आओ ।' ज़नाब लालाजी साहिब ने अन्दर आकर कहा, 'वह बाजार से कुछ लाने नहीं देते और बार बार कह रहे हैं कि घर में जो कुछ हो ले आओ । तो देखो भुने हुए चने या और कोई चीज खाने लायक हो तो निकालो ।' जवाब मिला कि अगर कुछ होता तो फाके क्यों होते ? बड़ी मजबूरी दरपेश थी । हुज़ूर महाराज समझ गये । फ़रमाया, 'उस दिन जब हमारी बेटी ने रोटी बनाई थी तो एक टिकिया आटे की जो एक तरफ जल गई थी, वह अब भी पड़ी होगी । वही ले आओ और उसके साथ किसी चीज का अचार लेते आना ।' ज़नाब लालाजी साहिब अन्दर गये, देखा तो वाकई में चूल्हे पर एक तरफ जली हुई रोटी की टिकिया पड़ी थी । आपने उसे उठाया और अचार के एक टुकड़े के साथ हुज़ूर के सामने पेश किया । आप खा कर उठे । इसी बीच ज़नाब लालाजी साहिब ने कहीं से एक रुपया उधार लाकर चलते वक्त आपको फीस पेश की । आपने फ़रमाया कि बेटे देखो, इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि यह मेरा पेशा नहीं है । ज़नाब लालाजी साहिब ने चाहा कि आपको इक्के पर बैठा दूँ । आपने इन्कार कर दिया और कहा कि मैं रोजाना दो ढाई मील टहलने निकलता हूँ आज इधर ही निकल आया । इस प्रकार आप पैदल ही घर के लिए चल दिए ।
उस समय तक ज़नाब लालाजी साहिब हुज़ूर महाराज के विषय में इतना ही जानते थे कि आप उर्दू, फारसी और अरबी भाषाओं के उत्कृष्ट विद्वान और श्रेष्ठ अध्यापक हैं परन्तु उक्त घटना से ज़नाब लालाजी साहिब को यकीन हो गया कि यह कोई पहुँचे हुए फकीर हैं । तभी से ज़नाब लालाजी साहिब के हृदय में उनके प्रति अटूट श्रद्धा और आदर का भाव जाग्रत हो गया । आगे चलकर वह किस प्रकार हुज़ूर महाराज की अनमोल रूहानी दौलत से फैज़याब हुए इसका विस्तृत विवरण इसी ग्रन्थ के पिछले अध्याय में दिया जा चुका है । परम पूज्य महात्मा रघुबर दयाल जी महाराज (पूज्य चच्चाजी महाराज) के विवाह के पश्चात एक लम्बे समय तक कोई सन्तान नहीं हुई । घर के सभी लोग चिंतित रहने लगे । पूज्य चच्चाजी महाराज के ससुराल वाले विशेष रूप से चिंतित थे और उन लोगों ने रामेश्वरम् जाकर वहाँ किसी विशेष अनुष्ठान के आयोजन का कार्यक्रम बनाया । जिन दिनों पूज्य चच्चाजी महाराज के ससुराल वाले रामेश्वरम् जाने की तैयारी कर रहे थे, संयोग से एक दिन हुज़ूर महाराज ज़नाब लालाजी साहिब के मकान पर पधारे । वहाँ घर में लोगों की भीड़-भाड़ देखकर बोले, 'बेटे पुत्तू लाल इस घर में कैसी भीड़ और चहल-पहल है ?' ज़नाब लालाजी साहिब ने बड़े विनय भाव से निवेदन किया, मेरे छोटे भाई के कोई सन्तान नहीं है । हम सब मालिक की रजा में राज़ी हैं परन्तु परिवारजन विशेष रूप से छोटे भाई के ससुराल वाले सन्तान प्राप्ति के लिए इन सब को रामेश्वरम् ले जाकर कोई विशेष प्रकार का अनुष्ठान करा कर सन्तानोत्पत्ति के लिए भगवान की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं । मैं और मेरे छोटे भाई इस आयोजन से असहमत होते हुए भी ससुराल वालों की हठधर्मी के सामने खामोश हैं, बस इस धर्म संकट से आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं । यह कहते हुए ज़नाब लालाजी साहिब के आँखों में आँसू आ गये । यह सब सुन कर हुज़ूर महाराज का दिल भी करुणा भाव से द्रवित हो उठा और बहुत ही जज़्ब में दोनों भाइयों से फ़रमाया, 'जो खुदा वहाँ है वह यहाँ भी है । वह इनायत और मेहरबानी करने के लिए मक्का, मदीना, रामेश्वरम् इत्यादि किसी जगह का मोहताज नहीं है ।' यह कह कर आपने एक कटोरा पानी तलब किया, उस पर भगवत प्रेम भरी दृष्टि डाली और पूर्ण जज़्बी हालत में ईश्वर से दुआ करते हुए ज़नाब लाला जी साहिब को आदेश दिया, 'यह पानी बेटी को पिला दो और मालिक के फज़्लोकरम का इन्तज़ार करो ।'
पूज्य लाला जी साहिब ने हुज़ूर महाराज के आदेश का अक्षरशः पालन किया और वह कटोरा भरा हुआ जल चच्चाजी महाराज की धर्मपत्नी को बड़ी श्रद्धा से पिला दिया और पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की कृपा की प्रतीक्षा करने लगे ।
कुछ ही दिनों में खुश खबरी सुनने को मिली कि गर्भ में बच्चा है । परन्तु सातवें-आठवें महीने में पूज्य चाचीजी के उदर में कुछ कष्ट उत्पन्न हुआ और गर्भपात होने की आशंका हुई । पूज्य लालाजी साहिब ने एक पत्र लिख कर घर के नौकर चित्तर कहार के द्वारा हुज़ूर महाराज की सेवा में भेजा और उपरोक्त स्थिति से अवगत कराया । दूसरे दिन चित्तर कहार हुज़ूर महाराज का उत्तर रायपुर (तहसील कायमगंज) से लाये । उस पत्र में हुज़ूर महाराज ने लिखा था, अल्लाहतआला की ज़ात पाक से पूरी उम्मीद है कि जब उसने अपने फ़ज़्लोकरम से इस आसीपुरआसी बन्दे की दुआ कबूल फ़रमाई है तो खतरा किसी किस्म का न होना चाहिए । वह बड़ा कृपालु और दयालु है 'इंशा अल्लाह' मेरा पोता पैदा होगा और मैं उसका नाम बृजमोहन लाल' रखता हूँ ।' हुज़ूर महाराज का यह आशीर्वाद फलीभूत हुआ । नौ महीने के बाद रामनवमी के दिन सन् 1818 में महात्मा बृजमोहन लाल जी साहिब का शुभ जन्म हुआ ।
एक बार पूज्य चच्चाजी महाराज ने फ़रमाया कि हमारे गुरुदेव (हुज़ूर महाराज) के पास एक लड़का आया करता था जो बड़ा हँसमुख था । वह हमेशा हँसा ही करता था । एक दिन हुज़ूर महाराज ऐसे भावावेश में आ गये कि उस लड़के को पीटना शुरु कर दिया । वह लड़का चुपचाप खड़ा पिटता रहा । जब हुज़ूर महाराज का भावावेश शान्त हुआ, उन्हें अपने इस व्यवहार पर बड़ा अफसोस हुआ कि उस लड़के को बेक़सूर मारा । बस वहीं खड़े-खड़े आँखें बन्द कर के परमात्मा से कुछ दिली दुआ करते रहे । थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर बोले, 'जा बेटा, तू अल्लाह के फ़ज़्लोकरम से (दया, कृपा से) वली हो गया (सन्त हो गया) ।' वास्तव में उसी समय से उस लड़के के अन्दर वली के लक्षण प्रकट होने लगे । आगे चलकर वह लड़का एक कामिल और मुकम्मिल वली की स्थिति को पहुँच गया ।
हुज़ूर महाराज का स्वभाव और व्यक्तित्व
हुज़ूर महाराज स्वभाव से बड़े हँसमुख थे । वह हमेशा ख़ुशदिल रहते और कहते कि ख़ुशदिल रहना ही अच्छा है क्योंकि प्रसन्नचित्त रहने से सब चिंताएं डूब जाती हैं । वह बहुत ही कम आँख मूँद कर तवज्जोह देते थे और फ़रमाते थे कि आँख मींचने से ही अध्यात्म विद्या का प्रकाश नहीं होता है । हँसने और खुश रहने से आत्मा खिलती है । जिसका दिल रोता है अर्थात् ईश्वर की याद में लगा रहता है उसके चेहरे पर हंसी रहती है ।
हुज़ूर महाराज बड़े दयालु प्रकृति के थे । यदि वह किसी को भी कष्ट में देखते थे तो तुरन्त तन-मन-धन से उसकी खिदमत में लग जाते । हुज़ूर महाराज की स्वयं की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी फिर भी जब कभी कोई जरूरतमन्द उनके पास आता और अगर उनके पास रुपये होते तो तुरन्त उस जरूरतमन्द को रुपये दे देते और खुद परिवार सहित एक हफ़्ते का फ़ाका करते । तक़ाज़ा करना तो दूर रहा कर्जदार जिस गली में रहता उस गली से गुजरने में बहुत संकोच करते कि कहीं उस कर्जदार से आमना-सामना न हो जाये और उस बेचारे को उनके सामने शर्मिन्दा होना पड़े ।
कौन-सा शख़्स जरूरतमन्द है, इसकी जानकारी प्राय: उन्हें बिना उस शख़्स के बतलाये ही हो जाया करती थी । इसी सन्दर्भ में पूज्य चच्चाजी महाराज ने कानपुर में सत्संगी भाइयों को एक वाक़या सुनाया था जो इस प्रकार है । एक दिन हुज़ूर महाराज मकान के बाहर दालान में बैठे हुए थे और उनके पास मैं भी बैठा हुआ था । सामने सड़क से एक वृद्ध मुसलमान निकले । हुज़ूर महाराज ने मुझसे कहा, 'नन्हे (चच्चाजी महाराज के घर का नाम) यह जो बुजुर्ग सामने से निकल कर गये हैं इनकी क्या माली हालत होगी? (कैसी आर्थिक स्थिति होगी)' मैंने अर्ज किया कि हुज़ूर यह जिस तरह के साफ-सुथरे अच्छे कपड़े पहने हुए थे उससे तो यह अच्छी हैसियत के मालूम होते हैं । हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया, 'बेटे, इनके घर में तीन दिनों से फ़ाक़ा हो रहा है और यह संकोच और लज्जावश किसी से कुछ माँग नहीं रहे हैं ।' यह फ़रमा कर हुज़ूर महाराज ने अपनी जेब से एक रुपया निकाला और मुझसे बोले कि, 'वह बुजुर्ग फलाँ मकान में रहते हैं, तुम उनके पास जाना और उनसे मेरा सलाम अर्ज़ करना और बड़े अदब के साथ उनसे अर्ज़ करना कि वह यह एक रुपया क़बूल करने की इनायत फ़रमायें और इसे जल्द वापस करने की क़तई फिक्र न करें ।' हुज़ूर महाराज की आज्ञानुसार चच्चाजी उन बुजुर्ग के पास गये और जैसा हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया था वैसा ही उन्होंने उन बुजुर्ग से बड़े अदब के साथ अर्ज़ करते हुए वह एक रुपया उनको पेश किया । वह बुजुर्ग एकदम जज़्बी हालत में आ गये और बोले 'वाह बेटे ! तुम्हारे हजरत पीर इस बुलन्द दर्जे (ऊँची स्थिति) के फ़क़ीर हैं ।' मैंने अपनी इस माली (आर्थिक) तकलीफ़ को किसी से भी ज़ाहिर नहीं किया था । मेरे घर में तीन दिनों से फ़ाक़े हो रहे हैं । यह हैं तुम्हारे पीरो मुर्शिद कि बिला मेरे बतलाये हुए मेरी तकलीफ को उन्होंने जान लिया । उन बुजुर्ग की आँखों से आँसू निकल पड़े और बड़ी देर तक हुज़ूर महाराज की तारीफ़ करते रहे और दिली दुआएँ देते रहे ।
हुज़ूर महाराज अपने सभी सत्संगी भाइयों की ज़रूरतों का कितना ध्यान रखते थे इस सन्दर्भ में एक घटना जो ज़नाब लालाजी साहिब से सम्बन्धित है उल्लेखनीय है । एक बार हुज़ूर महाराज के यहाँ कई रोज से उपवास चल रहा था, क्योंकि घर में कोई भोजन सामग्री न थी और यही हालत ज़नाब लालाजी साहिब के यहाँ भी थी । हुज़ूर महाराज को किसी जगह से 15 रुपये मनीआर्डर से प्राप्त हुए थे । आपने उनमें से 10 रुपये ज़नाब लालाजी साहिब के यहाँ भिजवा दिए और पाँच रुपये अपनी माता जी के पास भिजवा दिए ताकि भोजन सामग्री मंगवा लें । शाम को जब आप घर आये और खाने का इन्तजाम न देखा तो अपनी माताजी से पूछा कि अभी तक खाना क्यों नहीं बनवाया । माताजी ने उत्तर दिया, 'जो रुपया तुमने भेजा था वह हमने पुत्तू लाल (ज़नाब लालाजी साहिब) के यहाँ भिजवा दिया क्योंकि उनके घर में उपवास चल रहे थे ।' आप यह सुन कर हंस पड़े, बहुत खुश हुए और कहा, 'आपने बहुत अच्छा किया' और उस रोज भी उपवास ही रहा ।
उनका हृदय बड़ा कोमल था । माँस खाने की बात तो दूर रही वह प्राय: गाय का दूध तक नहीं पीते थे । जब कभी बीमारी या कमजोरी की हालत में मजबूरन गाय का दूध पीना पड़ता तो ग्वाले को अपने सामने गाय को दुहने के लिए कहते । जब समझते कि आधा दूध बछड़े के लिए रह गया है, दुहना बन्द करा देते और अपने सामने बछड़े को पिलवा देते और पूरे दूध का दाम ग्वाले को दे देते । इस प्रकार वह बछड़े और ग्वाले दोनों का एक-सा ख्याल रखते थे ।
एक बार कानपुर में पूज्य चच्चाजी महाराज ने हुज़ूर महाराज के विषय में फ़रमाया था कि, 'हमारे गुरु महाराज की एक अजीब आदत थी । जब कभी उनके पास रुपया रहता भी था, तब भी वह दूसरे से कर्ज ले लेते थे ।' एक बार किसी सत्संगी भाई को उनकी इस आदत का किसी प्रकार पता चल गया । उसने हुज़ूर महाराज से ऐसा करने की वजह पूछी तो उन्होंने फ़रमाया कि ऐसा करने से हम जिसके कर्जदार हैं उसके एहसानमन्द तो रहते ही हैं, साथ ही साथ हमारा यह घमण्ड भी दबा रहता है कि हम किसी के कर्जदार नहीं हैं । एक बार हुज़ूर महाराज के पूज्य गुरुदेव ज़नाब ख़लीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब ने उनको भिक्षा माँगने का हुक्म दिया । कई रोज तक अपने गुरुदेव की आज्ञानुसार वह भिक्षा माँगते रहे लेकिन उन्हें तनिक भी लज्जा व शर्म नहीं महसूस हुई । फिर एक दिन उनके पूज्य गुरुदेव ने उनसे यह फ़रमाते हुए भीख माँगना बन्द करवा दिया, 'बेटे हम तुम से बहुत खुश हैं, तुम इस इम्तहान में पूरी तरह कामयाब रहे ।' हुज़ूर महाराज बड़े ही निर्भीक स्वभाव के थे । वह फ़रमाते थे कि मेरी क़ब्र किसी बुजदिल (डरपोक) की क़ब्र के नजदीक न बनवाई जाये । उनकी निर्भीकता की दो घटनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । हुज़ूर महाराज फर्रुखाबाद में मुफ़्ती साहब के मदरसे के अहाते में एक कोठरी किराये पर लेकर रहते थे । उन दिनों ज़नाब लालाजी साहिब (महात्मा रामचन्द्र जी महाराज) तथा उनके साथ कुछ हिन्दू लोग हुज़ूर महाराज के पास सत्संग के लिए आने लगे थे । शहर के कट्टरपंथी मुसलमान हुज़ूर महाराज से इस बात से चिढ़ने लगे और द्वेष रखने लगे कि वह बिना किसी धार्मिक भेदभाव के तथा बिना धर्म परिवर्तन के हिन्दुओं को आध्यात्मिक शिक्षा देते थे । कुछ मुसलमानों ने उनको ऐसा करने से रोकने की कोशिश की लेकिन हुज़ूर महाराज ऐसे मुसलमानों को डाँट कर अपने पास से भगा दिया करते थे । शहर के कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों ने हुज़ूर महाराज पर घातक हमला करने के लिए शहर के एक मशहूर गुण्डे को तैयार किया और उस गली को भी दिखा दिया जिससे होकर हुज़ूर महाराज अपने घर से बाज़ार को जाया करते थे । एक दिन वह अपने घर से रवाना हुए । वही गुण्डा गली के दूसरी ओर से आप पर हमला करने के लिए रवाना हुआ । ज्योंही वह बीच गली में पहुँचा दूसरी ओर से हुज़ूर महाराज ने उसे देखते ही अपने कमर में बंधे हुए चाकू को निकाल कर जोर से चिल्ला कर बोले, 'बदमाश, रुक जा अभी तुझे देखता हूँ ।' यद्यपि हुज़ूर महाराज उस गुण्डे के भरकम शरीर की तुलना में बहुत ही दुबले-पतले शरीर के थे, परन्तु उनकी वह चिल्लाहट और जोर की आवाज सुन कर वह इतना भयभीत हो गया कि उल्टे पाँव भागा और भागते हुए एक दो जगह गिर भी पड़ा । उस दिन से फिर किसी का साहस नहीं हुआ कि उनके साथ इस तरह की हरकत करे ।
हुज़ूर महाराज मिशन स्कूल फर्रुखाबाद में फ़ारसी और उर्दू पढ़ाने के लिए शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए थे । एक बार की घटना है कि हुज़ूर महाराज ने अपना त्यागपत्र लिख कर हेडमास्टर के सामने रख दिया । चूंकि हुज़ूर महाराज एक बहुत विद्वान और कुशल शिक्षक थे और स्कूल के सभी विद्यार्थी भी उनकी शिक्षा तथा सद्व्यवहार से बहुत प्रसन्न रहते थे इसलिए उन पादरी हेडमास्टर ने उनका इस्तीफा मंज़ूर करने से इनकार कर दिया । बस हुज़ूर महाराज ने अपनी कमर से चाकू निकाला और उनकी मेज पर रख दिया और फ़रमाया, 'फौरन मेरा इस्तीफा मंज़ूर करो, वरना इसी चाकू से तुम को खत्म कर दूँगा ।' यह बात सुनते ही वह पादरी इतने भयभीत हो गये कि उन्होंने उसी समय उनका इस्तीफा मंज़ूर कर लिया और फिर आगे उनसे कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ ।
हुज़ूर महाराज की यह आदत थी कि हर थके हुए भाई का पैर दबाते थे और अगर कोई संकोच करता और मना करता तो उससे नाराज होते और फ़रमाते कि, 'अब तुम भी हमारे पैर दबाने के हक़दार हो गये ।'
आप सबके साथ बराबरी का बर्ताव करते । इम्तियाज़ (एक को दूसरे पर तर्ज़ीह देना) बिल्कुल पसन्द न करते । सबके साथ एक फ़र्श पर बैठते । तकिया वगैरह नहीं लगाते थे । अपने शिष्यों की ओर टाँगे फैला कर कभी नहीं बैठते थे । ऊँची जगह कभी नहीं बैठते थे । जब कभी सत्संगी भाइयों को सिरहाने बैठाते और अगर कोई नहीं बैठता तो नाराज होते । कहीं चलते समय आप सबके साथ-साथ चलते थे । आगे-आगे चलना आप को बहुत नापसंद था । जो सब खाते वही आप भी खाते । बहुत स्पष्ट वक्ता थे । जो दिल में आता फौरन कह देते । एक बार एक रईस साहब जो हैदराबाद दक्षिण में एक उच्च पद पर नियुक्त थे, बड़ी खुशामद से आपको अपने साथ ले गये और वहाँ पर उन्हें बड़े आराम से रखा, लेकिन सत्संग में बहुत कम आते थे । आपने वहाँ रहना पसंद नहीं किया और वापस चले आये । कहने लगे, 'हम आराम के ख्वाहिशमन्द नहीं हैं । हम तो ढूंढ़ने वाला दिल (जिज्ञासु हृदय) देखते हैं । हम तो इस ख्याल से गये थे कि शायद हमारी सोहबत से इन्शाअल्लाह (ईश्वर इच्छा से) उनको कुछ रूहानी फायदा होगा ।'
हुज़ूर महाराज को भोजन के मामले में किसी प्रकार का तक़ल्लुफ़ (टीमटाम व दिखावा) पसन्द नहीं था । जब वह महात्मा रामचन्द्र जी के घर तशरीफ ले जाते तो वहाँ पर घर में जो कुछ भी भोजन बना होता वही भोजन करते । घर में अगर सूखी रोटियाँ होती तो उन्हीं को बड़े चाव के साथ खाते । यही नहीं कभी घर में कोई भोजन न होता और सूखे भुने हुए चने ही उपलब्ध होते तो उन्हें बड़े प्रेम से खाते । पूज्य चच्चाजी महाराज एक वाक़या सुनाया करते थे कि एक दफ़ा हुज़ूर महाराज महात्मा रामचन्द्र जी महाराज (पूज्य लालाजी साहिब) के घर तशरीफ लाये । पूज्य चच्चाजी महाराज ने जब देखा कि हुज़ूर महाराज तशरीफ लाये हैं तो वह बहुत ही खुश हुए और उस खुशी के भावावेश में हुज़ूर महाराज के लिए कुछ विशेष प्रकार के भोजन की व्यवस्था कर डाली । जब वह भोजन हुज़ूर महाराज के सामने परोसा गया तो उस समय तो उन्होंने चुपचाप भोजन कर लिया । सुबह होते ही बोले कि अब मैं चलूंगा । (यद्यपि इस बार उनका इरादा तीन-चार दिन रुकने का था) । जनाब़ लालाजी साहिब का यह साहस नहीं हुआ कि वह पूछते कि आप इतनी जल्दी क्यों जा रहे हैं ? केवल चलते समय इतना ज़रूर अर्ज़ किया, 'हुज़ूर, अब आप कब तशरीफ लायेंगे?' हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया कि, 'अब जब तक तुम्हारा यह भोजन मुझे याद रहेगा तब तक मैं यहाँ नहीं आऊँगा ।' चच्चाजी महाराज फ़रमाते थे कि उस दिन से मैं इतना डर गया कि फिर मैंने कभी हुज़ूर महाराज के भोजन में कोई तक़ल्लुफ़ नहीं बरता और जो कुछ भी घर में होता वही उन्हें परोस दिया जाता था ।
हुज़ूर महाराज बहुत ही सफाई पसन्द थे । आप अक्सर इतने अँधेरे में गंगा स्नान करने के लिए जाते कि अँधेरे में ही वापस आ जाते । गर्मी में शाम को भी नहाने जाते । दूसरे को कभी भी अपने वस्त्र धोने को नहीं देते । खुद अपने कपड़े साफ करते और साफ कपड़े पहनते ।
बच्चों के साथ बच्चों की तरह खेला करते थे और अक्सर खेलते समय बच्चों को बताशा बाँटते थे, परन्तु जब चाहते तो सभी बच्चे चुपचाप अदब के साथ बैठ जाते और ध्यानपूर्वक पढ़ने लगते । बच्चों को कभी भी नहीं मारते थे । फ़रमाते थे, 'बा अदब बा नसीब, बे अदब बे नसीब' (जिसके व्यवहार में शिष्टता है वह भाग्यशाली होता है और जो व्यवहार में अशिष्ट है वह अभागा ही रहता है)
एक दिन हुज़ूर महाराज अपने मकान के बाहर दालान में बैठे हुए थे । उस दिन उन्हें कहीं से साढ़े आठ रुपये प्राप्त हुए थे । कुछ ऐसा संयोग रहा कि उस दिन उनके पास कुछ ऐसे लोग आये जिन्हें कुछ रुपयों की जरूरत थी, हुज़ूर महाराज ने फौरन ही उन रुपयों में से आठ रुपये उन जरूरतमन्द भाइयों को दे दिए । यद्यपि यह वह दिन था जबकि वह पूरे परिवार सहित तीन फाके से बैठे हुए थे । शेष आठ आने वह हाथ में लेकर उछालते रहे । इसी बीच आपकी पूज्य माता जी आईं और उनसे वह आठ आने लेकर चूड़ियाँ खरीदीं और बड़ी जिज्जी (पूज्य लालाजी साहब की धर्मपत्नी) और पूज्य चाची जी (चच्चाजी महाराज की धर्मपत्नी) को, जो उनसे मिलने आईं थीं, दे दीं । यद्यपि वह दोनों पहले से ही खूब चूड़ियाँ पहने हुए थीं । यह थी हुज़ूर महाराज की दानशीलता तथा आपकी माता जी की अपनी उक्त दोनों बहुओं के प्रति हार्दिक प्रेम की उदात्त भावना, जो हम सभी को मानवता के ऐसे उच्च आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने के लिए सदैव प्रेरणा प्रदान करती रहेगी ।
एक बार हुज़ूर महाराज मकान के बाहर बैठे हुए थे । रात्रि के 11-12 बज गये थे । वक्त का पता न चला । आपने अन्दर से दूध माँगा, मगर न था । आप बाजार तशरीफ ले गये । वहाँ एक बूढ़े को एक तरफ सन्नाटे में बैठे हुए देखा । आपके पूछने पर उसने कहा, 'मैं चलने से मज़बूर हूँ इसलिए बैठा हूँ ।' हुज़ूर महाराज उसको घर तक पहुँचाने को तैयार हो गये । उसने कहा, 'आपके साफ-सुथरे कपड़े खराब हो जायेंगे ।' मगर हुज़ूर महाराज ने एक न सुनी और एक हुज्जत के बाद उसको अपनी पीठ पर बैठाया । आप जब उसको क़ब्रिस्तान पर लाये तो उसने कहा, यहीं उतार दो, बस यहीं मेरा मकान है; आगे न जाऊँगा । वह आहिस्ता से यह कहता हुआ चला गया, 'शाबाश बेटे, जैसा सुना था, वैसा ही पाया ।' (इस घटना के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि उस कब्रिस्तान में दफ़नाई हुई वह किसी फकीर की रूह थी जो हुज़ूर महाराज के स्वभाव में ओत-प्रोत, दया-भाव तथा प्राणि मात्र की निष्काम सेवा की परीक्षा लेने के लिए उस बाजार में एक बूढ़े की शक़्ल में आई थी ।)
हुज़ूर महाराज एक अच्छे शायर (कवि) भी थे । कविता में आपका तख़ल्लुस (उपनाम) 'मज्रूह' था । यद्यपि इस लेखक को हुज़ूर महाराज की कविताओं का कोई संग्रह उपलब्ध नहीं हो सका, परन्तु आपके एक उच्च कोटि के शायर (कवि) होने का प्रमाण तो आप द्वारा रचित शज्रः शरीफ (गुरु परम्परा की वंशावली) से मिलता है, जो आपने उर्दू में कविता के रूप में लिखा था । यह शज्रः शरीफ हुज़ूर महाराज की श्रेष्ठ काव्य रचना होने के साथ ही साथ इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सूफी मत के सभी सिद्धांतों का इतना सुन्दर समावेश मिलता है, जो अन्यत्र एक ही काव्य रचना में मिलना दुर्लभ है ।
हुज़ूर महाराज की अमृत वाणी
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि हर शख़्स को अन्दर से लामजहब (धार्मिक संकीर्णता से मुक्त) होना चाहिए और बाहर से जो जिस मज़हब में पैदा हुआ है उसी के उसूलों (सिद्धांतों तथा नियमों) की पूरी-पूरी पाबन्दी करनी चाहिए ।
आपका फरमाना था कि अगर मुरीद बराबर यह ख्याल रखे कि उसके पीरो मुर्शिद को क्या जरूरत है तो खुदा चाहे बहुत जल्द तरक्की कर सकता है ।
हुज़ूर महाराज का फरमाना था कि मैथुन ख्याल का सबसे बुरा है । ख्याल के मैथुन से यह मतलब है कि एक बात को सोचने बैठे और उसको इस हद तक सोचते चले गये कि अपने लक्ष्य को ही भूल गये । ऐसा करने से बेइन्तहा शक्ति क्षीण होती है ।
एक बार हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया कि मौत के समय जो हालत होती है वह बयान के बाहर है । उस हालत का अनुभव उसी को हो सकता है जो उस हालत से गुजरता है । विसाल (शरीर छोड़ने) के बाद मिट्टी व रूह की हालत के बारे में जो बातें क़ुरआन शरीफ में लिखी हैं वह सब सही हैं लेकिन उन सब बातों के बावजूद भी खुदा की हकीकत कुछ और ही है ।
आप फ़रमाते थे कि मुरीद माने होता है गुलाम के । कोई किसी का गुलाम नहीं है सब आपस में भाई-भाई हैं ।
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि पीर रहबर (पथ-प्रदर्शक) है क्योंकि जिस बात का पता तुम खुद तलाश करके भी न लगा सके उसके मिलने की तरकीब उसने बता दी । इस वास्ते उसकी बहुत इज्जत करनी चाहिए और वह बहुत बड़ी इज्जत के काबिल है । उसकी खिदमत जिस्मानी (शारीरिक सेवा) उतनी ही करनी चाहिए जिसमें उसको कोई जिस्मानी तकलीफ न पहुँच पाये । बाकी जिस्म को पीर नहीं समझना चाहिए । वह जो चीज है वह है अर्थात गुरु की आत्मिक शक्ति जो शिष्य के अन्तःकरण की अज्ञानता के अंधकार को दिव्य ज्ञान के प्रकाश में बदल दे वही पीर (सतगुरु) है ।
आप फ़रमाया करते थे कि जिस शख्स ने अपने हाथ से प्रभु की याद में भोजन बनाया और उसी की याद में खाया वही एक दिन प्रभु को भी पायेगा ।
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि हर मज़हब में नबी व अवतार हुए हैं । उन सब की एक सी इज्जत करनी चाहिए । आप अवतारों के बारें में फ़रमाते थे कि ऊपर सब एक हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है ।
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि अगर कोई मेरे पास आये तो अभी मुसलमान बनाने के लिए तैयार हूँ । मुसलमान बनना क्या है ? जिसने एक खुदा पर पूरा यकीन कर लिया वह मुसलमान हो गया । मुसलमान का अर्थ है 'वह शख़्स जिसमें मुसल्लम ईमान हो' अर्थात एक खुदा पर यक़ीन करने वाले सभी मुसलमान हैं, चाहे वह जिस मजहब के मानने वाले हों ।
आप फ़रमाया करते थे कि इस रास्ते में शोहरत (प्रचार) न करे । एक जगह पर बैठ जाय ईश्वर पर भरोसा कर के । जिसे ईश्वर चाहेगा भेज देगा । शोहरत की ख्वाहिश करने से वह चीज जाती रहती है और कोरे के कोरे रह जाते हैं ।
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि बीमारी या किसी तकलीफ में सबसे बड़ा अमल यह है कि जो शख़्स जो ज़बान जानता हो उसी ज़बान में वह ख़ुदा से दुआ करे । अगर उसे मंज़ूर है तो वह अच्छा कर देगा ।
आप फ़रमाते थे कि इस रास्ते में करामात (चमत्कार) करके दिखाना बहुत ही बेजा (अनुचित) है । हाँ जब कभी कोई खास जरूरत पड़ने पर किसी की खिदमत के लिए कुछ करना ही होता है तो बीच में आड़ देकर (गुप्त रूप में) करते हैं जिससे कि उस शख्स को पता न चले और वह अपना कृतज्ञ होकर ईश्वर से दूर न हो जाये । किसी के सामने उसकी भलाई करना बहुत बेजा है । भलाई केवल ईश्वर करता है । हम तो उसके हाथ के यन्त्र हैं । सीधे-सीधे दिखा कर किसी का उपकार करना भक्तजनों को शोभा नहीं देता ।
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि जिस में मजहब का लगाव बाकी है, उसकी फकीरी में कुछ कमी जरूर है ।
एक बार पूज्य चच्चाजी महाराज ने हुज़ूर महाराज से दरियाफ्त किया कि मुरीद जब सिरात का पुल पार करता है तो उस समय क्या पीर को अपने मुरीद को उस पुल के पार कराने में हाथ लगाना पड़ता है । (इस्लाम मजहब की यह मान्यता है कि मरने के बाद हर शख़्स को सिरात का पुल जो एक माना हुआ स्थान या मार्ग है पार करना पड़ता है । जो लोग बुरे कर्म किए रहते हैं वे उस पुल से नीचे दोज़ख़ (नर्क) में गिर जाते हैं । केवल अच्छे आमाल (कर्म) वाले ईश्वर भक्त ही इस पुल को पार कर पाते हैं ।) हुज़ूर महाराज ने चच्चाजी महाराज के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए एक किस्सा सुनाया, 'एक बहुत बड़े बुजुर्ग (फकीर) थे । उन्होंने अपने पैर में एक फोड़ा बना लिया और हकीम को बुलाकर दिखाया । हकीम ने कहा इस ज़ख़्म की हालत खराब है । दवा से अच्छा होना मुश्किल है, सिर्फ एक तरकीब है कि अगर कोई शख़्स इस जख्म को जबान से चाटे तो यह ठीक हो जायेगा । मगर जो चाटेगा उसकी जान जाने का खतरा है । उन बुजुर्ग ने अपने मुरीदों से पूछा कि क्या कोई ऐसा कर सकता है ? सब खामोश हो गये और नाउम्मीद हो गये । आखिरकार एक मुरीद आया और उसने दरियाफ़्त किया कि यह जख्म किस तरह अच्छा हो सकता है । उन्होंने कहा कि अगर कोई इसे जबान से चाटे तो अच्छा हो सकता है लेकिन चाटने वाले की जान जाने का खतरा है । उस मुरीद ने कहा कि मुझे जान जाने की चिन्ता नहीं है । मुझे चिन्ता सिर्फ इस बात की है कि वह फोड़ा कैसे अच्छा होगा । दिखलाइये कहाँ है वह फोड़ा, मैं उसे चाटुंगा । उन्होंने ज़ख़्म दिखलाया । उस मुरीद ने चाटना शुरु किया तो उस ज़ख़्म से बहुत ही मीठा स्वादिष्ट आम का रस निकलने लगा । फोड़ा अच्छा हो गया । न उसकी जान गई और न उसे कोई नुकसान हुआ ।' इस किस्से को सुना कर हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया कि 'जब तक पीर की खिदमत में जान जाने का ख्याल है तब तक बैअत (दीक्षा) कैसे हुई और पीर कैसे जिम्मेदार हो सकता है ।'
आप फ़रमाते थे कि खिदमत करना सीखो, खिदमत लेना नहीं ।
हुज़ूर महाराज ने महात्मा रामचन्द्र जी महाराज को इजाजत ताम्मः (गुरु पदवी के पूर्ण अधिकार) तथा ख़िलाफ़त प्रदान करते समय निम्नांकित पाँच आदेश दिए थे जो सभी साधकों द्वारा बहुमूल्य उपदेशों के रूप में ग्रहण किए जाने चाहिए ।
एक मर्तबा एक सत्संगी भाई ने हुज़ूर महाराज से निवेदन किया, 'महाराज जी, गुरु के ध्यान (तसव्वुरे शैख) का अभ्यास इस मार्ग में क्या काफी और ठीक नहीं है ?' हुज़ूर महाराज ने उत्तर दिया, 'भाई, ठीक होने को तो ठीक बात है ही और इसमें संदेह नहीं कि जितना प्रेम व विश्वास सतगुरु में होगा उतनी ही उनकी गुप्त सहायता शिष्य की आत्मिक उन्नति तथा आन्तरिक चढ़ाई में प्राप्त होती रहेगी । साधारण तौर पर आन्तरिक साधना तीन प्रकार की होती है ।
हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया कि मुख्य रूप से ज़िक्रे कल्ब का अभ्यास करना चाहिए । बाकी दोनों तरीके तसव्वुरे शैख तथा मुराक़बः भी संग-संग लिए रहने से असल अभ्यास में बड़ी मदद मिलती है । जब ज़िक्रे कल्ब में मन रमने लगे, तो बीच-बीच में गुरु के ध्यान (तसव्वुरे शैख) का 'आह्वान' बड़े प्रेम से करते रहना चाहिए; ताकि जो आत्मिक चैतन्य शक्ति उनके (गुरु के) हृदय में पूर्ण रूप से प्रकाशमान हो रही है उसका बिजलीनुमा प्रभाव अपने हृदय को जगमगा दे (प्रकाशित कर दे) और प्रभु प्रेम का जज़्बा हमारे हृदय में बराबर भड़कता व उमड़ता रहे ।
जब गुरु के ध्यान व गुरु की तवज्जोह की सहायता से हृदय जाग्रत हो जायेगा और आत्मिक जज़्बात पैदा होने लगेंगे, तब सचमुच वह गुरु व परमात्मा के प्रेम का आनन्द अनुभव करने लगेंगे । इससे पहले जो प्रेम था वह केवल मानसिक तथा भावना तुल्य था । अब हृदय से चैतन्य शक्ति फूट व उमड़ पड़ेगी और वह प्रेम व लगन जज़्ब (ब्रह्मलीनता) में परिणीत हो जायेगी ।
आपने आन्तरिक अभ्यास के उक्त तीनों साधनों पर प्रकाश डालने के पश्चात इस रास्ते की तालीम का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष सत्संगी भाइयों को उन्होंने समझाया कि इस रास्ते में रूहानियत की तालीम हासिल करने में दो बातें बहुत जरूरी हैं । वे हैं तरतीब और तादीब । तरतीब का यह अर्थ है कि इस रास्ते में आन्तरिक अभ्यास या किसी प्रकार का क्रियात्मक साधन आदि जो गुरु करने को बताये, उसमें तरतीब (क्रम व सिलसिला) होना चाहिए । कभी-कभी यह देखा गया है कि जिस क्रम या नियम से कोई अभ्यास या साधना करने के लिए गुरु आदेश देता है शिष्य उसे छोड़ कर या उससे जी चुरा कर बिना समझे-बूझे आगे वाली किसी क्रिया या साधना को बिला नियम अथवा क्रम के करने लगता है, जिससे उसे फायदा होने की बजाये नुकसान ही होता है । दूसरी बात जिसकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिए वह है 'तादीब' । तादीब शब्द निकला है, मूल शब्द 'अदब' से । अदब का एक शाब्दिक अर्थ होता है- हर चीज की हद पर निगाह रखना यानी निर्धारित सीमा से कभी आगे न बढ़ना । कभी-कभी यह देखा गया है कि कोई शिष्य गुरु द्वारा बतलाये हुए अभ्यास, साधना या कोई भी अमल (क्रिया) हद के बाहर यहाँ तक करने लग जाते हैं कि इस रास्ते की तालीम की अन्य जरूरी बातें या व्यवहारिक जीवन की आवश्यक बातें जिनका उचित ध्यान रखना शिष्य के लिए जरूरी होता है वह भूल जाते हैं और उनमें एक ख़फ्ती या मज्जूब की सी हालत पैदा होने लगती है जो इस रास्ते के अनुयायीयों के लिए बहुत ही हानिकर होती है । इसलिए इस मार्ग के अभ्यासियों को रूहानियत की तालीम हासिल करने में तरतीब और तादीब इन दोनों बातों का ध्यान रखना निहायत जरूरी है ।
एक सत्संगी भाई ने महात्मा रामचन्द्रजी को एक खत लिखा था कि अहलकारान (कर्मचारी) तथा उनके अफसर उनसे नाराज रहते हैं । कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या वजह है और क्या किया जाये । इसका जो जवाब उन्होंने दिया था उसका वह अंश जो हुज़ूर महाराज की दी हुई एक महत्त्वपूर्ण नसीहत से ताल्लुक रखता है नीचे दिया जाता है : -
सबसे बढ़िया बात मैं तुम को बतलाता हूँ जो मेरे गुरु महाराज ने (हुज़ूर महाराज ने) ख़ास ऐसे ही मौक़े के लिए मुझको बतलाई थी और मुझको कामयाबी हुई थी, वह यह है कि जिस शख़्स से तुम को खौफ है और उलझन होती है, उसको अपना खैरख्वाह (शुभचिंतक) और दोस्त ख्याल करो और जबरदस्ती इसकी मश्क (अभ्यास) बढ़ाओ, एकान्त में बैठ कर बिला नागा और थोड़ी देर यह मराक़बा (ध्यान) किया करो कि फलाँ शख्स मेरा दोस्त और खैरख्वाह (शुभचिंतक) है । उसकी मिसाली शक्ल को (उसी की समान आकृति को) अपने साथ बिठलाओ और यह ख्याल करो कि उसकी तरफ से बुराई के ख्यालात निकल गये और उसमें तुम्हारी निस्बत (तुम्हारे सम्बन्ध में) बेहतरी के ख्यालात समा गये । जब कभी उस शख़्स के पास जाने को मौका हो तो उसकी शक्ल पर नजर जमा कर जो साँस बाहर निकालते हो उस साँस के साथ यह ख्याल भी निकालो कि तुम्हारी मुहब्बत के ज़र्रात (परमाणु) उस शख़्स के दिल में घुस कर सरायत कर गये (समा गये) और जब साँस बाहर की तरफ से अन्दर को लेते हो तो यह ख्याल करो कि उस शख़्स के तुम्हारी तरफ से बुराई के ख्यालात उसके दिल से तुमने घसीट लिए हैं और एक तरफ उनको फेंक दिया है । एक यह अमल ऐसा और इतना करो कि एक चक्कर मिस्ल चर्ख़ी के बंध जाये; निहायत मुफ़ीद (अत्यन्त लाभदायक) है । थोड़े दिनों में मामले के रुख मिस्ल पानी के पलट जायेंगे और तुम ताज्जुब करोगे कि क्या से क्या हो गया, बशर्ते कि वह अमल तुम्हारा नफ़रत की शक्ल से प्रेम की शक्ल में बदल जाये । पहले तो बड़ी दिक्कत होगी । यह काम पहाड़ की तरह भारी होगा लेकिन मर्दों के लिए सब आसान है ।
स्वामी आनन्द भिक्षु ने एक बार पूज्य चच्चाजी महाराज से यह पूछा कि आपने यह सब इतनी जल्दी किस प्रकार प्राप्त किया । (उनके पूछने का आशय यह था कि आप इस ऊँची आध्यात्मिक स्थिति पर इतनी जल्दी कैसे पहुँच गये) । चच्चा जी महाराज ने आँखों में आँसू डबडबाते हुए फ़रमाया, 'स्वामी जी, इस पतित अति मूर्ख आसीपुरआसी (पापी दर पापी) में कोई भी तो योग्यता ऐसी न थी और न है कि यह कुछ भी प्राप्त कर सकता । सच तो यह है कि सब कुछ मेरे सर्वस्व मालिक गुरु महाराज (हुज़ूर महाराज) की दया कृपा और उनके क़दमों की बरकत से है । इस सेवक को एक समय यह गुरु मंत्र हुज़ूर महाराज से मिल गया था कि या तो किसी को कर ले या किसी का हो रहे । आशा है कि इसी से बेड़ा पार हो जायेगा ।'
ज़नाब हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब ने फ़रमाया कि, 'एक बार मैं हुज़ूर महाराज के साथ कहीं जा रहा था । साथ में कुछ और भाई लोग भी थे । रास्ते में एक भाई ने फ़रमाया कि गुरु हो तो ऐसा जैसा कि बरतनों का जंग छुड़ाने वाला, तो मैंने कहा कि नहीं गुरु ऐसा हो जैसा धोबी । वह बराबर आप के कपड़ों की गन्दगी को धोता है और आप बार-बार उसे गन्दा कर देते हैं । यह सुन कर हुज़ूर महाराज ने फ़रमाया कि धोबी नहीं बल्कि मेहतर कहो । आप का मतलब यह था कि गन्दगी भी ऐसी (हमारी वासनाओं, वृत्तियों और गुनाहों की) जो पाख़ाने के मानिन्द हो, उसे गुरु साफ करता है ।'
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे -
जाति न पूछे साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान । काम करो तलवार से पड़ी रहन दो म्यान ।।
उक्त पंक्तियों को सुनाते हुए आप हिन्दू, भाइयों से कहते थे कि तुम मेरे पास आत्म ज्ञान सीखने आये हो, अवश्य सीखो, परन्तु मेरी रहनी-सहनी की नक़ल हरगिज न करो । जिस जाति व कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है, उसकी रीत-रिवाजों का पालन करो । बाहरी जीवन तुम्हारे कुल व जाति के अनुसार हो । आत्मिक क्षेत्र में हमारा तुम्हारा सम्बन्ध है ।
हुज़ूर महाराज का हुक्म था कि बहस करने वालों को यह विद्या बहुत देर में और सोच-समझ कर बतलाना चाहिए । बहस करने वालों से मतलब ऐसे लोगों से है जो बात-बात में नुक़ता चीनी निकालते हैं ।
हुज़ूर महाराज फ़रमाते थे कि जिसका अन्तर (मन और हृदय) साफ है वह बिना बाहरी सफाई के रह नहीं सकता ।
आप फ़रमाते थे कि वास्तव में जो सतगुरु होते हैं वह अपनी पूजा नहीं कराते और न कराना चाहते हैं । जो भी उनके पास आता है असली ध्येय व इष्ट की ओर उसका रुझान कर देते हैं और ईश्वर से प्रार्थना किया करते है, 'हे स्वामी, तेरी ही दया कृपा से इस सेवक ने तेरे बन्दों को तेरी याद दिला कर तेरे सामने पेश कर दिया । बस अब ये तेरा काम है कि तू इन पर दया कृपा की दृष्टि कर तथा सत मार्ग पर चलने का साहस तथा अपना प्रेम व अनुराग इनको प्रदान कर ।'
हुज़ूर महाराज कर महा प्रयाण
नवम्बर सन् 1107 ई॰ में हुज़ूर महाराज का स्वास्थ्य अत्यन्त चिंताजनक हो गया था । वह इलाज के लिए कानपुर तशरीफ ले गये । लेकिन वहाँ भी जब कोई लाभ न हुआ तो अपने निवास स्थान रायपुर लौट आये । उनको दस्त आने लगे थे और सर में चक्कर आते थे । उनका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता गया । संसार में महापुरुषों का महा प्रयाण भी कितना महान होता है, इस तथ्य की पुष्टि में हुज़ूर महाराज के महा प्रयाण से सम्बन्धित निम्नांकित कुछ घटनाओं का वर्णन किया जा रहा है ।
एक बार पूज्य चच्चा जी महाराज ने कानपुर में सत्संगी भाइयों से फ़रमाया था कि, 'हुज़ूर महाराज ने शरीर त्यागने के एक दिन पूर्व मुझे तवज्जोह दी थी ।' इस पर उनके एक सत्संगी भाई ने पूज्य चच्चा जी महाराज से निवेदन किया, 'चच्चा ! सुनते हैं कि उस वक्त तो उनकी हालत बहुत ही नाजुक और चिंताजनक हो गई थी फिर क्या ऐसे वक्त में उनमें यह क़ुव्वत (सामर्थ्य) थी कि वह तवज्जोह दे सकते थे ।' इस पर पूज्य चच्चा जी महाराज ने फ़रमाया कि उनमें कुबत कब नहीं थी । उनमें यह रूहानी ताकत थी कि वह सख़्त दर्द व तकलीफ को ठहरा सकते थे (कुछ समय के लिए रोक सकते थे) और उस बेहद कमजोरी की हालत में भी कठिन से कठिन काम कर सकते थे ।
उक्त सन्दर्भ में ही पूज्य चच्चाजी महाराज ने एक घटना कानपुर में सत्संगी भाइयों को सुनाई थी जो इस प्रकार है : - एक पंजाबी नवयुवक अपनी पत्नी के साथ हुज़ूर महाराज के पास उनके आखरी वक्त में हाजिर हुए थे । हुज़ूर महाराज ने उन्हें चन्द मिनट तवज्जोह देकर कामिल कर दिया । (अध्यात्म में पूर्ण पारंगत बना दिया और गुरु पदवी की इजाजत भी दी ।) उस वक्त आप इतने सख़्त बीमार थे और इतने कमजोर हो गये थे कि तीन आदमी करवट लिवाते थे, परन्तु उक्त नवयुवक की आवाज सुन कर आप स्वयं उठ बैठे और हुक्म दिया कि किवाड़ खोल दो । उनको इजाजत देकर आप बोले, 'जाओ बस्ती में न रहना, पत्नी को साथ रखना । ईश्वर तुम्हारा निर्वाह करेगा ।' फिर वह कभी दिखाई न दिए । (इस घटना का वर्णन पहले भी किया जा चुका है ।)
हुज़ूर महाराज की हालत 30 नवम्बर सन् 1907 ई॰ को अचानक बिगड़ गई और बचने की कोई उम्मीद न रही । उस वक्त उनके पास ज़नाब मीर अमीर अहमद साहब व डाक्टर अहमद हुसैन साहब व मुनीर शाह साहब साकिन मऊ रशीदाबादी मौजूद थे । विशाल के चन्द मिनट पेश्तर तक होश-हवास दुरुस्त थे और बातें करते रहे; और जिस वक़्त विसाल हो रहा था आप कलमा शरीफ जबान मुबारक से फ़रमा रहे थे । प्राणान्त के अन्तिम क्षणों में वह फ़रमाते जा रहे थे कि मेरी रूह (जान) पैरों से खिंच गई, घुटनों से खिंच गई, कमर से खिंच गई । आखिर में यह फ़रमाया कि अब सब लोग अल्लाह की तरफ ध्यान लगाओ, मेरी रूह अब क़ल्ब (हृदय) से भी खिंचने जा रही है । सब लोग उस समय फ़ैज की धार (कृपा धार) में ग़र्क़ थे (डूबे हुए थे) । आँख खोलने पर लोगों ने देखा कि हुज़ूर महाराज की आत्मा पार्थिव शरीर त्याग कर उस परम सत्ता में लीन हो चुकी थी । ऐसे अलौकिक और अपूर्व थे हुज़ूर महाराज के महा प्रयाण के अन्तिम क्षण ।
हुज़ूर महाराज ने 30 नवम्बर 1107 ई॰ को वक़्त तीन बजे तीसरे पहर को इन्तकाल फ़रमाया (शरीर त्याग दिया) । ज़नाब मुहम्मद नसीम खाँ साहब रईस रायपुर ने फौरन इन्तजाम तज़हीज व तक़्फ़ीन का किया (शव को यथा नियम नहला-धुला कर और कफ़न में लपेट कर जनाज़ा तैयार करने का प्रबन्ध किया) और सब लोगों को इत्तला दी । शाम के वक्त महात्मा रामचन्द्र जी साहिब (ज़नाब लालाजी साहिब) को फतेहगढ़ में पंडित मेवाराम जी और मुंशी ज़हर अली खाँ साहब ने उक्त हृदय विदारक घटना सुनाई । सुबह 1 दिसम्बर 1107 ई॰ को प्रात: 8 बजे महात्मा रामचन्द्रजी, पंडित मेवाराम जी, और श्री लाल बिहारी जी साकिन कायमगंज तीनों रायपुर को रवाना हुए । ज़नाब मुहम्मद इब्राहीम फर्रुखाबादी और ज़नाब दीन मुहम्मद साहिब की रास्ते में ज़नाब लालाजी साहिब से मुलाकात हुई ।
ज़नाब मुहम्मद नसीम साहिब रईस रायपुर ने सब इन्तज़ाम वगैरह किया और मुरीदैन (शिष्यों) को पत्र द्वारा सूचना भिजवाई । पहली दिसम्बर को तीन बजे दोपहर तजहीजो तक़्फीन से फरागत हुई । (शरीअत के मुताबिक शव को दफ़नाने की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हुई) । तारीख 30 दिसम्बर सन् 1907 ई ॰ को ज़नाब किब्ला हुज़ूर महाराज का उर्स (भंडारा) था । हज़रत मौलाना विलायत हुसैन खाँ साहिब (हुज़ूर महाराज के छोटे भाई साहिब) की रस्म सज्जादा नशीनी अदा हुई । (किसी बड़े फ़क़ीर या महात्मा के निधन पर उनकी गद्दी पर बैठने की रस्म सज्जादा नशीनी कहलाती है ।)
हुज़ूर महाराज की मजार शरीफ़ रायपुर के पश्चिम की तरफ ईदगाह में दक्षिण मीनार की तरफ है । हुज़ूर महाराज का पवित्र मज़ार उनके पोते ज़नाब मौलवी मंज़ूर अहमद खाँ साहिब की देखरेख में निर्मित हुआ है । उन्हीं की देख-रेख में अप्रैल में ईस्टर की छुट्टियों के बाद यहाँ सत्संग व मीलाद का कार्यक्रम आयोजित हुआ करता है । यहाँ बड़ी संख्या में सत्संगी भाई एकत्रित होकर इस पुरनूर मजार से फैज़याब हुआ करते हैं ।
35. ज़नाब हज़रत शाह अब्दुल ग़नी खाँ साहब (रहम॰)
आपकी समाधि भौगाँव में है ।
गूगल मैप कोर्डिनेट्स : 27°15'26.9"N 79°11'20.9"E
जन्म, बचपन व शिक्षा
हज़रत शाह अब्दुल ग़नी खाँ साहब (रहम॰) का जन्म कस्बा कायमगंज जिला फर्रुखाबाद में एक सम्पन्न पठान घराने में हुआ था । आप अपने माता-पिता के एक मात्र सन्तान थे । आपकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं के एक मदरसे में हुई । आप बचपन से सच बोलने के लिए मशहूर थे । कुसूर में किसी झगड़े के निपटाने के लिए और सच्चाई जानने के लिए आपको तलब किया जाता था । क्यों कि आपके मुदर्रिसात जानते थे कि आप कभी झूठ न बोलेंगे ।
जब आप कुछ बड़े हुए तो आपके किबला वालिद साहब ज़नाब हाज़ी हसन खाँ साहब आपको उसी क़स्बे के एक काबिलीयत के लिए विख्यात मौलवी ज़नाब हज़रत खलीफा अहमद अली खाँ साहब की खिदमत में ले गये और उनसे इल्तिजा की ''यह बच्चा आपके सुपुर्द है । आप इसे तालीम अता करें ।'' इसके पहले ज़नाब खलीफा जी साहब के इकलौते बेटे, जिनको वह अब्दुल्ला कह कर पुकारते थे, का इन्तकाल हो चुका था और आपने पढ़ाने का काम बन्द कर दिया था । ज़नाब खलीफा जी साहब ने हज़रत शाह को बगौर देखा और अपने मरहूम बेटे की हम शक्ल पाया । ज़नाब खलीफा जी साहब ने आपका हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से जौजा मुकद्दसा के पास ले गये और उनसे फ़रमाया ''लो तुम्हारा अब्दुल्ला आ गया ।'' वह फौरन उठीं और हज़रत शाह साहब को सीने से लगा लिया । वह बोली 'यह सचमुच मेरा अब्दुल्ला है ।'' बावजूद कि ज़नाब खलीफा जी साहब बच्चों को तालीम देना बन्द कर चुके थे, हज़रत शाह साहब को शागिर्दी में लेना कबूल कर लिया । थोड़े ही दिनों में आपकी दुनियावी तालीम में इतना कामिल बना दिया कि उनकी उम्र का कोई लड़का उनकी सानी न था ।
हज़रत शाह साहब खुद फ़रमाया करते थे कि एक मरतबा आप ज़नाब खलीफा जी साहब के यहाँ 3, 4 दिन लगातार नहीं गये, तो उनकी वालिदा माँजिदा ने पूछा “तुम 3, 4 दिन से ज़नाब खलीफा जी साहब के यहां पढ़ने को नहीं जा रहे हो ?” हज़रत शाह साहब ने जवाब दिया “ज़नाब खलीफा जी साहब ने मुझे इतना पढ़ा दिया है कि बस्ती में कोई लड़का इल्मियत में मेरी बराबरी नहीं कर सकता ।”
ज़नाब खलीफा जी साहब हज़रत शाह साहब के न आने से बेचैन हो गये और खुद हज़रत शाह साहब के घर तशरीफ ले गये और उनसे पढ़ने न आने की वजह दरयाफ़्त की । इस पर आपकी वालिदा माँजिदा ने परदे में खड़े होकर आपके ऊपर लिखे हुए जवाब को बताया । तब ज़नाब खलीफा जी साहब ने फ़रमाया, ''अभी तो उसने दरिया में से एक कतरा हासिल कर पाया हैं ।'' इस के बाद आपको पढ़ने आने की ताकीद करके वापस चले गये ।
उसके कुछ ही दिनों बाद वहीं कायमगंज की एक मस्जिद में एक आलिम साहब ने आकर कयाम किया और ज़नाब खलीफा जी साहब को उन आलिम साहब से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ । बातचीत के आखिरी हिस्से के दौरान में उन आलिम साहब ने ज़नाब खलीफा जी साहब से कोई बात दरयाफ़्त की । ज़नाब साहब को उस बात की जानकारी न थी । लिहाज़ा उन्होंने सादा तरीके से कायमगंजी रोजमर्रा की भाषा में जवाब दिया ''मलूम नहीं ।'' इस पर आलिम साहब ने तञ्ज किया । ''पठान चाहे जितना काबिल हो जाय उसकी पठानी बू नहीं जाती ।''
ज़नाब खलीफा जी साहब ने वहाँ से रुखसत होते वक्त फ़रमाया ''मैं आपके पास एक पठान बच्चे को भेजूंगा, आप उसका इम्तहान लें ।'' घर वापस आने पर हज़रत शाह साहब ज़नाब खलीफा साहब की खिदमत में हाजिर हुए । ज़नाब खलीफा जी साहब ने आपको बताया कि फलाँ मस्जिद में फलाँ हुलिया के एक आलिम साहब ठहरे हुए हैं और हुक्म किया कि अगले दिन आपको आलिम साहब के पास जाना है । आगे फ़रमाया कि आलिम साहब आपसे जो भी सवाल पूछें उनका सही सही जवाब देना, और जब आलिम साहब पूछना बन्द कर दें तो आप उनसे ऐसा सवाल पूछें कि आलिम साहब उसका जवाब न दे सकें ।
ज़नाब खलीफा जी साहब के यहाँ से रुखसत होकर हज़रत शाह साहब चिन्तामग्न घर लौटे । रात में आपने कई वजायफ पढ़े और अल्लाह पाक से दुआ माँगी कि इम्तहान के मौक़े पर ऐसे कामयाब हों कि ज़नाब खलीफा जी साहब खुश व मुतमैयन रहें ।
दूसरे दिन हज़रत शाह साहब उन आलिम साहब की खिदमत में हाजिर हुए और आदाब पेश किया । आलिम साहब ने आपसे सवालात पूछने शुरू किये । हज़रत शाह साहब ने हर सवाल का सही और मौजूं जवाब दिया । जब आलिम साहब ने आगे और सवाल करना बन्द कर दिया तो आपने आलिम साहब से बड़ी आजिजी से यह पूछा- ''ज़नाब मेरी समझ में एक बात नहीं आती आप बताने की इनायत फ़रमायें । “उर्दू के हरूफ में हर्फ अलिफ़ (।) है और लाम (J) भी है । फिर हर्फ लाम अलिफ़ (IJ) क्यों बनाया गया ?” आलिम साहब हज़रत शाह की इस बात का जवाब नहीं दे सके और बड़े महजूब हुए । शर्मिन्दगी मिटाने के लिए हज़रत शाह साहब को कुछ मिठाइयाँ खाने को पेश की । हज़रत शाह साहब ने उन मिठाइयों को खाने से यह कह कर इनकार कर दिया कि पठान परिवारों में बाजार की मिठाइयाँ इस्तेमाल में नहीं आती और घरों में जो मिठाइयाँ वालिदायें तैयार करती हैं वही खायी जाती हैं ।''
इस प्रकार हज़रत शाह साहब ने उस छोटी से उम्र में भी आलिम साहब के उस तञ्ज का जवाब दिया और यह सिद्ध कर दिया कि इल्मिय्त में पठान किसी से कम नहीं है मगर अवाम के सामने आमतौर से बोल चाल की भाषा का ही प्रयोग उचित मानते हैं । मिठाई न खाने से यह भी सिद्ध कर दिया कि घरों में खुद खाना तैयार करने की कितनी अहमियत है और सात्विक दृष्टि से पठानों की संस्कृति कितनी उच्च है ।
इसके बाद हज़रत शाह साहब खुशी में गर्क ज़नाब खलीफा जी साहब की खिदमत में हाजिर हुए और सलाम पेश किया । ज़नाब खलीफा जी साहब ने दुआ देकर आपको सीने से चिपटा लिया और शाबाशी देते हुए फ़रमाया, “बेटे तुमने आलिम साहब के सवालों का सही सही जवाब दिया और तुमने लाभ आलिफ (ला) के उर्दू हरूफ में शामिल किये जाने का जो सबब पूछा, निहायत माकूल था, जिसका आलिम साहब कोई जवाब न दे सके । मुझे तुम्हारे इस सवाल से बेहद खुशी हुई ।” इस पर हज़रत शाह ने ज़नाब खलीफा जी साहब से पूछा कि उन्हें इन बातों का इल्म कैसे हुआ । ज़नाब खलीफा जी साहब ने कहा 'बेटे मैं बराबर तुम्हारे साथ ही तो था ।''
आप बचपन से ही बड़े ज़हीन थे, ज़नाब खलीफा जी साहब की बतायी हुई बातों को एक ही बार में याद कर लिया करते थे । उर्दू, फारसी और अरबी में पूर्ण पारंगत हो जाने के बाद वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल में प्रवेश लिया । वहां की फाइनल परीक्षा में आप प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए और चार विषयों में विशेष योग्यता प्राप्त की । इसके पश्चात नार्मल परीक्षा में बैठे । इस परीक्षा की तैयारी मैं ज़नाब किबला मौलाना फज़्ल अहमद खां के छोटे भाई ज़नाब विलायत हुसैन खां आपके हम सबक थे । यही ज़नाब मौलाना फज़्ल अहमद खां साहब आपके पीर भाई व रहनुमा थे और बाद में ज़नाब खलीफा जी साहब के परदा कर जाने पर उन्होंने ही आपको इजाज़त व खिलाफत अता की थी । इम्तहान शुरू होने के पहले ही दिन जब दोनों साथ-साथ जा रहे थे कि रास्ते में ज़नाब विलायत हुसैन साहब को कै होने लगी । हज़रत शाह साहब ने उन की बड़ी इम्दाद की और जो भी उपचार मुमकिन थे सभी किये । इम्तहान की देर होती देखकर ज़नाब हुसैन साहब ने आपसे जाने को कहा मगर हज़रत शाह साहब ने जवाब दिया, ''ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको इस हालत में छोड़ कर मैं इम्तहान में शामिल हो जाऊँ ।'' खुदा का रहम कि थोड़ी देर बाद आराम होने पर दोनों साहबान साथ साथ इम्तहान में शामिल हुए ।
जब इस इम्तहान का नतीजा निकला, हज़रत शाह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए और तमाम सूबे में उनका पहला नंबर था । तत्कालीन माननीय गवर्नर ने इतनी छोटी उम्र में आपका नाम प्रथम स्थान में पढ़ कर आपसे मिलने की ख्वाहिश जाहिर की । हज़रत शाह साहब गये और अपने तरीके का आदाब पेश किया । माननीय गवर्नर ने आदाब कबूल करने के बाद आपसे सवाल किये । पहला सवाल - ''अगर तुम्हारे दर्जे में 40 तुलबा हों और तुम्हें सिर्फ एक को पढ़ाना है 39 को नहीं, तो तुम क्या करोगे ?'' हज़रत शाह साहब से माकूल जवाब पा कर गवर्नर साहब ने दुबारा पूछा ''अगर दरजे में 40 लड़के हों 39 को पढ़ाना है एक को नहीं तो क्या करोगे ?'' इसका भी आपने सन्तोषप्रद उत्तर दिया । इसके बाद माननीय गवर्नर ने आदेश दिया कि आप मैनपुरी के जिला मजिस्ट्रेट से मिलें ।
हज़रत शाह साहब का जीविकोपार्जन
माननीय गवर्नर के आदेशानुसार हज़रत शाह साहब जिला मजिस्ट्रेट मैनपुरी से मिले । जिला मजिस्ट्रेट ने आपको बताया 'तुम्हारे विषय में मुझे हिदायत मिल चुकी है, मैं तुम्हें मिडिल स्कूल का मुदर्रिस (अध्यापक) नियुक्त करता हूँ । तुम शिकोहाबाद जाकर मिडिल स्कूल में अध्यापक का चार्ज सम्भाल लो । और यह भी पूछा कि वहाँ गदर है क्या तुम काम कर लोगे ? हज़रत शाह साहब ने जवाब दिया, ''अगर आप मदद करेंगे तो जरूर कर लूंगा ।'' जिला मजिस्ट्रेट ने कहा 'क्या तुम कतल कर दोगे ?' आपने फ़रमाया ''कतल तो नहीं, मगर कतल अमद जरूर होगा'' । इस पर जिला मजिस्ट्रेट ने मदद करने का वादा किया ।
इसके बाद हज़रत शाह साहब ने शिकोहाबाद जाकर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मिडिल स्कूल में अध्यापक के पद का चार्ज लिया । सबसे पहले आपने वहाँ के सभी मुदर्रिसान से मीटिंग की और उनसे वहाँ के हालात के बारे में जानकारी की । मालूम हुआ कि उस स्कूल में एक गिरोह बन्द व गुण्डा किस्म का लड़का है । वह रोजाना 500 दंड और 1000 बैठकें करता है । बस्ती के लोग उससे थर्राते हैं । उसने हर हेडमास्टर की बेइज्जती की है । कोई मास्टर यहाँ रहना पसन्द नहीं करता बल्कि इस्तीफा देना बेहतर समझता है । उस लड़के को आपको पहचनवा भी दिया गया ।
जिस कक्षा का वह लड़का छात्र था आपको उसी कक्षा का अध्यापन कार्य सौंपा गया । पहले दिन हज़रत शाह रजिस्टर के काम में मशगूल रहे । दूसरे दिन भी आप रजिस्टर लिए बैठे रहे जैसे उसमें कुछ काम करते रहे और वह दिन भी व्यतीत हो गया । तीसरे दिन भी क़सदन रजिस्टर पर ही निगाह गड़ाये रहे और कलम से कुछ लिखने का बहाना करते रहे । वह लड़का अपने दांव की तलाश में था और आप भी उसी का इन्तजार कर रहे थे । उस दिन वह लड़का अपनी जगह से उठ कर आपके पास पेशाब कर आने की इजाज़त माँगने आया । आपने रजिस्टर पर आँखें गड़ाये ''नहीं'' कह दिया । मगर वह लड़का अपनी जगह नहीं गया और फिर पूछा ''पेशाब कर आऊँ ?'' हज़रत ने फिर ''नहीं'' कह दिया । तीसरी बार उस लड़के ने पुनः पूछा ''पेशाब कर आऊँ'' । इस बार आप गुस्से में तेजी से उठे । कलम व रजिस्टर अलग फेंका कुर्सी भी पीछे की और धड़ाम से गिरी । बिना कुछ समय खोये उस लड़के के एक तमाचा जड़ दिया और ऐसा पेंच मारा कि वह लड़का चारों खाने चित्त गिर गया । अब आप उसकी छाती पर चढ़ बैठे और अपना कायमगंजी चाकू निकाल लिया । उसकी गरदन पर चाकू रखते हुये बुलन्द आवाज में बोले ''हरामजादे, तेरी कैसे जुर्रत हुई कि मेरे बार बार मना करने पर भी अपनी जगह पर वापस नहीं गया । बदमाश कहीं का, बोल तेरी सब आँतें निकाल लूँ । ''लड़का बेहद घबड़ा गया और गिड़गिड़ा कर माफी माँगने लगा । जब उस लड़के ने दुबारा कभी ऐसा न करने का वादा किया तभी आपने उसे छोड़ा और कहा ''जा बैठ अपनी जगह पर ।''
उसी दिन पूरे क़स्बे में यह खबर आग की तरह फैल गई । दूसरे दिन क़स्बे के कई बाअसर लोग एक मोटर पर बैठ कर मैनपुरी जिला मजिस्ट्रेट के यहाँ गये और वाकया सुनाया । बाद में यह भी अर्ज किया कि उन्होंने एक कातिल और गुण्डे को अध्यापक नियुक्त कर भेज दिया है, उसे वहाँ से फौरन हटा दीजिए । जिला मजिस्ट्रेट ने सारी बातें सुनी और अन्दर चले गये ।
थोड़ी ही देर में पुलिस की दो लारियाँ भरकर आ गईं और साथ ही एस॰ पी॰ साहब भी आ पहुँचे । एस॰ पी॰ साहब को लेकर जिला मजिस्ट्रेट अन्दर चले गये और पुनः निकल कर आये । पुलिस को हुक्म दिया कि शिकोहाबाद से आये सभी लोगों को हथकड़ी लगाकर जेल भेज दो । वे लोग बड़े भयभीत हुए और गिड़गिड़ाने लगे कि ऐसा न किया जाय । इस पर जिला मजिस्ट्रेट ने डाँटते हुए कहा ''तुम्हारे यहाँ इतने दिनों से गदर मचा है कि कोई मास्टर टिकने नहीं पाता, न कोई पढ़ाई होती है । इस बात को लेकर तुम लोग कभी नहीं आये । आज जब मैंने ऐसा अध्यापक भेजा कि वहाँ के माहौल को बदले तो उसकी शिकायत करने चले आये ।'' सब लोगों ने इस बात को महसूस किया और आइंदा मदद करने का वादा किया ।
इस प्रकार हज़रत शाह साहब ने मुलाजमत की शुरुआत की । इसके बाद तबादले होते रहे और आपको मुख्तलिफ जगहों में रहने का मौका मिला । जहाँ भी आप रहे अपनी इल्मियत और तालीम के लिए मशहूर रहे । आप न केवल अपने विद्यार्थियों के प्रिय रहे वरन् बस्ती के लोग भी आदर की दृष्टि से देखते थे । आप अपने अख़लाक से सभी का दिल जीत लेते थे आपके सामने किसी को गलत काम करने या गलत बात कहने की हिम्मत न होती थी ।
आप अपने विद्यार्थियों की सब प्रकार से मदद करते थे । तालीम के साथ साथ लड़कों को मुहज्जिब और नेक इन्सान बनाने का ख्याल रखते थे । उनका कहना था ''बाअदब बानसीब, बेअदब बेनसीब ।''
उस समय डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का हर तहसील में एक मिडिल स्कूल होता था । जिसे तहसीली स्कूल या टाउन स्कूल भी कहते थे । स्कूल की बिल्डिंग के पास बोर्डिंग हाउस तथा हेडमास्टर का क्वार्टर रहता था । पदोन्नति के पश्चात् हेडमास्टर हो जाने पर कई स्थानों पर आप भी उसी क्वार्टर में रहते और बोर्डिंग के लड़कों तथा बस्ती से आ जाने वाले अन्य बालकों को रात में पढ़ाया करते थे । एक बार रात में ऐसे ही किसी स्कूल के बोर्डिंग हाउस के निकट कुछ बदमाश इकट्ठे हुए जो आपस में बातें कर रहे थे । लड़के बहुत डर गये थे । एक लड़के ने हज़रत शाह साहब को यह सब हाल बताया । आपने लड़कों को निडर रहने की ताकीद की और कहा कि आइन्दा बदमाशों के वहाँ इकट्ठा होने की सूचना आपको दें । लिहाज़ा दूसरी रात आपको इत्तिला दी गई । आप तुरन्त लाठी लेकर उठे और बदमाशों को ललकारा और साथ ही चहार दीवारी के बाहर कूद गये । आपको आते देखकर बदमाश भाग खड़े हुए । और उधर से आवाज आई, “मैं जानता हूँ तुम बिन्नौट जानते हो ?” जब 35-40 आदमी लेकर आऊँगा तब तुम क्या कर लोगे ?” । आपने जवाब दिया । “बेशक तुम लोग 40 आदमी और साथ में 30 चारपाई भी लेकर आना ।”
हेडमास्टर के पद से आपकी तरक्की हुई और सब डिप्टी इन्सपेक्टर के पद पर आसीन हुए । आपको स्कूलों का मुआयना करने जाना पड़ता था । गर्मी में आपको अधिक तकलीफ होती थी अतः आप एक स्कूल से दूसरे स्कूल जाने के लिए ज्यादातर रात में सफर करते थे । दूसरी सवारी उपलब्ध न होने पर एक बार आप ऊँट गाड़ी से एक स्कूल में दूसरे स्कूल जा रहे थे । सुनसान जगह पर लुटेरों ने जबरन आपकी गाड़ी रोकी । चालक से गाड़ी रुकने का सबब दरयाफ़्त किया । मालूम हुआ कि लुटेरों ने गाड़ी रुकवाई है । यह जान कर आप लाठी लेकर कूद पड़े और उन बदमाशों से, जो संख्या में आठ थे, कहा ''भाई जो कुछ मेरे पास है वह सब निकाल कर रक्खे देता हूँ और तुम लोगों के पास जो हो वह भी निकाल कर रख दो । इसके बाद पूरे माल को जो उठा सके उठा ले ।'' इस शर्त पर वे लोग राजी हो गये तथा वैसा ही किया । उन सबों ने आप पर वार करना शुरू किया, आप अकेले ही सब का सामना करते थे । थोड़ी देर में वे आठों लोग घायल होकर भाग खड़े हुए और आपके कोई चोट नहीं आई । फिर आपने सब को बड़े प्यार से बुलाया और कहा कि अपने अपने पैसे उठा लो, साथ ही मेरे पैसे भी आपस में तकसीम कर लो, मगर यह पेशा छोड़ दो । आपके आग्रह पर सबने तौबा किया कि अब ऐसा न करेंगे । आपने भी सबके सामने उनके लिए हक से दुआ माँगी । कुछ अरसे के बाद पता चला कि वे सभी लुटेरे नेक इन्सान बन गये ।
सब का हित चाहने वाला इन्सान निर्भय हो जाता है । उसे अपने पराये की भावना नहीं होती । वह सभी के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है । आपके अदम्य साहस की अनेक दास्तानें हैं । आपका गोरा बदन और आकर्षक व्यक्तित्व था । देखने में दुबले पतले किन्तु बलिष्ठ, तेज धावक, बिन्नौट कला में निष्णात, फुरतीले एवं खेलकूद में अव्वल । रहमदिल मगर अनुशासन में कठोर । सफेद कुर्ता और पल्लीदार टोपी पहनते थे, कभी कभी साफ़ा भी बाँधते थे । आत्मीयता से भरा हुआ 'बेटे' सम्बोधन से मनुष्य मात्र उनकी ओर खिंचता चला आता था । फारसी व अरबी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे । कुरानशरीफ़ आपको कण्ठाग्र थी । दूसरे धर्मों की ओर भी आपका दृष्टिकोण बड़ा उदार था । आप हिन्दुओं के त्योहार बड़े चाव में मनाते थे । विशेषकर जन्माष्टमी का उत्सव उन्हें वहुत पसन्द था । चरण छूने से आप खुश होते थे ।
शुरू से ही आप इन्साफ पसन्द थे । आप में पक्षपात छू भी नहीं गया था । आपके बड़े पोते ज़नाब अब्दुल जलील खाँ साहब और एक पं॰ बजरंग प्रसाद दुबे के बीच जमीन सम्बन्धी एक मुकदमा चल रहा था । आपने पं॰ बजरंग प्रसाद दुबे को उनकी इल्तजा करने पर दुआ की और वह मुक़दमे में कामयाब हो गये । इसी तरह जमीन का एक और विवाद एक अलाउद्दीन साहब से चल रहा था उसमें भी आपने अलाउद्दीन की दुआ की और ज़नाब अब्दुल जलील खाँ साहब हार गये । इस पर जनाव जलील खाँ साहब ने आपसे शिकायत की कि आपने उस अलाउद्दीन के हक में दुआ देकर उन्हें हरवा दिया । आपने फ़रमाया कि ''तुम मेरे पोते हो इसलिए चाहते हो तुम्हारी इम्दाद करें । मैं अदल पसन्द आदमी हूँ । मेरे लिए अपना पराया कुछ नहीं है'' ।
आपकी औलाद में एक साहबज़ादी और एक साहबज़ादा था । अवकाश ग्रहण करने के बाद आपने मुस्तक़िल तौर से भौगांव में अपनी सकूनत अख्तियार की । अपने फण्ड से मिली रकम से आपने मकान खरीदा जो अब आपके पसमान्दगान बरत रहे हैं ।
आध्यात्मिक जीवन
ज़नाब खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहब (रहम॰) आपके न केवल सांसारिक विद्या के गुरु थे बल्कि रूहानी तालीम के भी पीर मुर्शिद थे । सांसारिक विद्या ग्रहण करने के दौरान ही ज़नाब खलीफा जी साहब ने अपनी रूहानी तालीम भी शुरु कर दी थी और आपको अपने जीवन काल में ही आध्यात्मिक क्षेत्र की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था । किन्तु बाहरी तौर से खिलाफत व इजाज़त अता नहीं की थी ।
ज़नाब खलीफा जी साहब खिलाफत व इजाज़त की बात तो दूर, आसानी से बैअत भी न करते थे । उनसे अक़ीदत रखने वाले एक सज्जन ने ज़नाब खलीफा जी साहब से हरचन्द बैअत करने की दरख्वास्त की, मगर उन्होंने बैअत करना मुनासिब नहीं ख्याल किया । हुस्ने इत्तिफ़ाक़ वह शख्स बिना बैअत हुए ही इस दुनियाँ से कूच कर गया । उसकी मृत्यु के बाद ज़नाब खलीफा जी साहब को बड़ा अफसोस हुआ और उस शख्स की मजार पर तशरीफ ले गये । उसको बैअत किया और अपनी तवज्जोह से सरशार कर वली बना दिया हज़रत शाह साहब अपने पीर की इस घटना का जिक्र बड़े फ़ख्र से किया करते थे और फ़रमाया करते थे कि जो चाहे उन वली साहब को देख आये ।
आपकी मुलाज़मत के जमाने में इसी तरह एक दरोगा जी का नौजवान लड़का आपकी सोहबत में बैठा करता था और उसने अनेक बार बैअत करने की दरख्वास्त की । हज़रत शाह साहब उसको बड़े प्यार से समझा दिया करते थे । ''बेटे मुझे इजाज़त नहीं है ।'' यह जवाब सुन कर उस लड़के ने कहा ''जैसे आपके पीर ज़नाब खलीफा जी साहब ने एक शख्स को बाद मैयत बैअत किया था और वली बनाया था, उसी तरह मालूम पड़ता है आप मेरे मरने के बाद बैअत करेंगे तथा सद्गति को प्राप्त करायेंगे'' । आपने उससे फ़रमाया ''बेटे ऐसा न कहो, तुम अभी लड़के हो, अल्लाह पाक तुम्हारी उम्र दराज करे'' । अल्लाह की ऐसी मरज़ी कि कुछ दिनों बाद उस लड़के का इन्तकाल हो गया । उसके बाद हज़रत शाह साहब को ख्याल गालिब हुआ ''कि मेरे पीर मुर्शिद में तो यह तौफीक थी कि अपने श्रद्धालु को मरने के बाद बैअत कर वली बना दिया और मैं इस लायक नहीं हू । क्या करुँ ? इस लड़के का कैसे कल्याण हो । इस ख्याल के गल्बे ने हज़रत शाह साहब को, बेचैन कर दिया । और आप तीन दिन रात अल्लाह पाक से गिड़गिड़ाते रहे और दुआ माँगते रहे कि इस लड़के का कल्याण हो । आपके पीर भाई ज़नाब हुजूर महाराज (मौलाना फज्ल अहमद खाँ रायपुरी) आपसे उम्र में बहुत बड़े थे किन्तु दोनों भाइयों में अपार प्रेम था । अतः आपने उनकी खिदमत में जाने का फैसला किया ।
उधर ज़नाब खलीफा जी साहब ने उसी रात को ज़नाब हुजूर साहब को ख्वाब में यह हिदायत फ़रमायी, ''अब्दुल ग़नी खाँ कल तुम्हारे पास पहुंच रहे हैं । उनको समझा कर तसल्ली देना । वह बहुत बेचैन हैं । वह दरोगा का लड़का मरने के बाद उनसे बैअत हो गया है और रूहानियत के आला मदरिज पर पहुंच गया है । अब उसके बारे में वह कतई फिक्र न करे । तुम उन्हें इसी वक्त इजाज़त ताम्मा अता करके वापस करना ।''
हज़रत शाह साहब अपने फ़ैसले के मुताबिक दूसरे दिन फरुखाबाद शहर की उस मस्जिद में, जहाँ ज़नाब हुजूर साहब उन दिनों वहीं रह रहे थे, पहुंच गये । पहुँचने के बाद आपके पीर भाई ज़नाब हुजूर साहब ने पहली बात आपसे यही कही कि ''भाई ग़नी अद्दा (प्यार व आदर में वह इसी सम्बोधन से पुकारते थे) आप उस दरोगा के लड़के के बारे में कतई फिक्र न करे । वह लड़का आपसे बैअत होकर आला तरीन मुकाम पर नशिस्त है ।
हज़रत शाह साहब ने आपसे यह सवाल किया कि उन्हें उस दरोगा के लड़के की बाबत और बेचैनी का कैसे इल्म हुआ । ज़नाब हुजूर साहब ने जवाब में यह फ़रमाया ''भाई ग़नी अद्दा पिछली रात ही ज़नाब खलीफा जी साहब ने ख्वाब में मुझे यह हिदायत दी है कि आप आ रहे हैं और ताकीद की है कि दरोगा के लड़के के सम्बन्ध में आपके ख्याल को बिलकुल निकाल दे । साथ ही इसी मौक़े पर आपको इजाज़त ताम्मा देने का निर्देश दिया है । अतः उसी दिन ज़नाब मौलाना फज्ल अहमद खाँ सा॰ ने हज़रत शाह साहब अब्दुल ग़नी खाँ को इजाज़त व खिलाफत अता की ।
उसी रात दोनों पीर भाई साथ साथ मराक़बे में बैठे । फिर सोने के लिए लेट गये । रात में करीब 1 बजे हज़रत शाह साहब को बहुत तेज भूख का अहसास हुआ । आप फरुखाबाद बाजार की ओर खाने की तलाश में निकल गये । शहर की सभी दुकाने बन्द थी । आपको कुछ दूर जाकर शहर के पक्के पुल नामक मुहल्ले में एक भुरजी भाड़ जलाये हुए मिला जो चने भून भून कर ढेर लगा रहा था । आपने एक रुपया और रुमाल बढ़ा कर चने माँगे । भुरजी ने चने देने से इनकार कर दिया । मजबूरन आप पुनः आकर लेट गये । हस्ब मामूल दूसरे दिन सुबह अपनी दिनचर्या से फारिग होकर दोनों साहबान खाना खाने बैठे । इस समय तक हज़रत शाह साहब की रात वाली भूख समाप्त हो चुकी थी । लिहाज़ा अपनी रोजमर्रा की भूख के अनुसार भोजन किया । ज़नाब हुजूर साहब ने आपसे और खाने का इसरार किया और कहा कि रात में तो आप खाने के लिए तमाम बाजार में चक्कर लगाते फिरे । आगे फिर फ़रमाया कि वह भुरजी अगर आपको अपने सब चने दे देता तो भी आपके भूख की ख्वाहिश ज्यों की त्यों बनी रहती । वह भूख थी ही इस प्रकार की ।
आपके मुरीदैन
इसके बाद आपने बहुत ही तालिबों को इस ओर प्रवृत्त किया । आपके मुरीदों की संख्या अत्यधिक थी । उनमें हिन्दू मुरीद ज्यादा तादाद में थे । आपके इकलौते साहबज़ादे भी आपके ही खलीफा अरसद थे । महात्मा रघुबर दयाल जी (चच्चा जी महाराज) के तीन पुत्र थे, तीनों पुत्र आपसे ही बैअत थे । ज्येष्ठ पुत्र महात्मा ब्रज मोहन लाल तथा मँझले पुत्र महात्मा राधा मोहन लाल को आपने ही इजाज़त व खिलाफत अता की थी । महात्मा जगमोहन लाल को, जो महात्मा रामचन्द्र जी महाराज (लाला जी साहब) के एक मात्र पुत्र थे, आपने ही इजाज़त व ख़िलाफ़त अता की थी ।
महात्मा ब्रज मोहन लाल जी को इजाज़त देने के वास्ते आपके पीर भाई किबला हुजूर साहब ने ख्वाब में निर्देश दिया था और आपने पूज्यपाद लाला जी साहब को खत लिख कर तलब किया था । इजाज़त देने के वक्त आप घर से उस टोपी को पहन कर निकले जो आपको बर वक्त इजाज़त आपके पीर भाई ने अता की थी । जब आप बाहर आकर बैठ गये तो महात्मा ब्रज मोहन लाल से, जिन्हें प्यार में 'बिरजू' कहते थे, अपनी ओर देखने को कहा । ज्यों ही उनकी नजर हज़रत शाह साहब की नजर से मिली त्यों ही उनकी चीख निकल गयी और ग़शी तारी हो गई । आँखें खुली की खुली रह गई । हज़रत शाह साहब ने उनके सिर पर लगी टोपी तुरन्त हटा दी और अपने सिर की टोपी उनके सिर पर रख दी । महात्मा ब्रज मोहन लाल जी की इस इञ्जनोवी हालत को देखकर लाला जी साहब को कुछ घबराहट हुई । उसका अनुभव करने पर हज़रत शाह साहब ने अपना रुमाल मुबारक उनके सीने पर रख दिया और ज़नाब लाला जी साहब से कहा, ''आप घबरायें नहीं, यह मरेगा नहीं । आगे चलकर इससे एक आलम मुनव्वर होगा ।'' इसी प्रकार हज़रत शाह साहब अपने साहबज़ादे के लिए अकसर फ़रमाया करते थे - ''रूहानी दुनियाँ को पुरनूर करने के लिए मेरा अकेला 'गफ्फार' ही काफी है ।''
महात्मा ब्रज मोहन लाल जी, जो 'पिताजी' के नाम से मशहूर हैं, के असंख्य मुरीद हैं । उनके विषय में अलग से पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । इसी तरह महात्मा राधा मोहन लाल जी (मुन्शी जी) से भी भारी तादाद फैज़याब हुई । महात्मा जगमोहन लाल जी स्वभाव के बहुत सीधे व सरल थे । उन्होने भी इस क्षेत्र में लोगों को लाभ पहुंचाया यद्यपि उनकी जिन्दगी ने ज्यादा वफा न की ।
पं॰ दरयाव सिंह के हालात
तमाम मुरीदों में एक पं॰ दरयाव सिंह जी भी थे जो जाति के ब्राह्मण थे और हज़रत शाह साहब की केवल शक्ल देखने के शैदायी थे । हज़रत शाह साहब उनके विषय में बहुत सी बातें बताया करते थे । जिनमें चन्द बातों का जिक्र यहाँ किया जाता है । जिस समय हज़रत शाह साहब शिकोहाबाद में हेडमास्टर थे, पं॰ दरयाव सिंह उस स्कूल में पढ़ा करते थे । रात में भी अन्य विद्यार्थियों के साथ पढ़ने आते थे । पढ़ाई खत्म हो जाने के बाद दरयाव सिंह हज़रत शाह साहब के पैर दबाया करते थे । एक दिन का वाकया है कि पैर दबवाते दबवाते हज़रत शाह साहब सो गये और दरयाव सिंह भी पैर दबाते दबाते उसी चारपाई में पैरों से लिपटे हुए सो गये । सोते में ही हज़रत शाह साहब को यह आभास हुआ कि उनकी तवज्जोह जारी है और किसी शख्स के तमाम मुकामात ज़ाकिर हो गये हैं, और वह फना फिल्लाह की दशा को पहुँच गया हैं । आप जाग उठे और देखा कि दरयाव सिंह सो रहें हैं और उन्हीं की यह हालत हो गयी है । आप उठे और दरयाव सिंह की उस हालत को सल्ब कर लिया । इसके बाद दरयाव सिंह को जगाया और हिदायत की, ''बेटे जब नींद आ जाया करे तो अलग जाकर सो जाया करो । मेरे साथ कभी न सोना ।'' दरयाव सिंह जी बहुत शर्मिन्दा हुए और कहा, ''हुजूर, में जान नहीं पाया कि कब सो गया ।''
पं॰ दरयाव सिंह पढ़ने की अवस्था से ही जज़्ब की हालत में रहते थे । एक बार दस्तवत्य रास्ते में बड़े अदब से खड़े थे । हज़रत शाह साहब उधर से गुजरे और उनके धीरे से एक चपत मारी, तब उन्हें होश आया । पूछने पर बताया, ''कि मुझे आप दिखाई दे रहे थे, इस लिए अदब से खड़ा हो गया ।''
ज़नाब दरयाव सिंह जी हज़रत शाह की शक्ल घण्टों देखा करते थे । जिस ओर आप घूमते उसी ओर वह बैठ जाते थे । अगर आपने कभी दीवाल की ओर मुँह कर लिया और दीवाल की तरफ खड़े होने की जगह नहीं है, तो पैताने की और मचवे पर एक पैर रखा वह घण्टों खड़े रहते थे ओर आप का मुँह ताका करते थे । एक बार आपके पीर भाई ज़नाब हुजूर साहब आपके यहाँ तशरीफ ले गये और दोनों साहबान बराबर चारपाई डाले हुए लेटे थे । आपने हुजूर साहब की ओर मुंह कर लिया । उन्होने इस बात का ख्याल किए बिना कि उनकी पीठ ज़नाब हुजूर साहब की ओर हो जायेगी, दोनों चारपाइयों के दरम्यान खड़े हो गये । हज़रत शाह ने कहा, ''बेटे तुम्हारी पीठ ज़नाब हुजूर साहब की ओर है यह बड़ी बेअदबी है ।'' हुजूर साहब ने फ़रमाया । ''उसे जैसा भी खड़ा हो खड़ा रहने दो ।''
एक बार कोई हिन्दू महात्मा ज़नाब दरयाव सिंह के गाँव आ गये । शाम के वक्त मैदान में उनका प्रवचन होता था और बड़ी भीड़ एकत्रित होती थी । एक दिन गांव वाले दरयाव सिंह जी को भी ले गये । भीड़ अधिक थी वह भीड़ के पीछे से दूर बैठ गये । उनके बैठ जाने पर महात्मा जी ने बोलना बन्द कर दिया और श्रोताओं से कहा कि वे लोग अपनी अपनी जगह पर बैठे रहे । महात्मा जी अपने आसन से उठ कर वहाँ गये जहां ज़नाब दरयाव सिंह बैठे थे और उनको जबरन उठा कर ले आये और अपने आसन पर बैठाया तब बोलना शुरू किया । दूसरे बिन वह महात्मा दरयाव सिंह जी के घर गये । उन्होने महात्मा जी का बड़ा आदर सत्कार किया । बातचीत के दौरान महात्मा जी ने पूछा “आप हिन्दू हैं कि मुसलमान ?” दरयाव सिह जी ने कोई जवाब नहीं दिया । तीसरे दिन महात्मा जी फिर उनके यहाँ तशरीफ ले गये और इसी प्रश्न को दोहराया कि वह हिन्दू हैं या मुसलमान ? दरयाव सिंह जी फिर भी चुप रहे । पुनः गाँव से विदा होते समय वह महात्मा जी फिर गये और वही प्रश्न पूछा “आप हिन्दू हैं या मुसलमान ?” इस बार ज़नाब दरयाव सिंह ने बड़ी संजीदगी से कहा, “अभी आप हिन्दू और मुसलमान का चक्कर और दूर कर दें ।”
दरयाव सिंह जी के गाँव में एक अन्नहा भैंसा कही से आ गया । वह भैंसा किसी भी भैंसों की जोड़ी को देखते ही मार डालता था और आदमियों को भी लखेद लेता ओर मार डालता था । उस इलाक़े में उसका बड़ा भय व्याप्त था तथा रास्ता चलना बन्द हो गया था । दरयाव सिंह उसी ओर चले जाने लगे जहाँ भैंसा मौजूद था । उन्हें उधर जाने से मना किया गया मगर वह 'खुदा हाफिज' कहते हुए उधर ही चले गये । भैंसा उन्हें देखकर सर नीचा किए हुए उनकी ओर दौड़ा । उन्होने अपने दोनों हाथ उसके सींगों में इस प्रकार डाल दिये जैसे उससे मिल रहे हों । थोड़ी देर में वह भैंसा उनसे छूट कर भाग गया और फिर कहीं नहीं दिखाई दिया ।
पं॰ दरयाव सिंह नित्य प्रति हज़रत शाह साहब के पास जाया करते थे । उनका ब्राह्मण परिवार इससे बड़ा खिन्न था और प्राय: यह चर्चा होती थी कि उन्हें कैसे रोका जाय । एक दिन उन्हीं के परिवार की एक बुढ़िया दादी ने उन्हें टोका, “क्यों दरयाव सिंह, तू उस मुसल्ले के यहाँ क्या लेने जाता है ।” हज़रत शाह साहब के प्रति ऐसे तिरस्कार पूर्ण शब्द को सुन कर वह एक दम जज़्ब में आ गये और उसी हालत में बोल उठे ''तू क्या जाने गू खानी'' । बस उसी दिन वह बुढ़िया 'गू' खाने लगी । खुद पाखाना करती और खुद खा लेती । सब लोग बड़े परेशान हो गये और आखिर हज़रत शाह साहब को यह बात बतायी गई । आपने यह बात सुनी और विचार किया कि उसी से यह ठीक भी हो सकती है । लिहाज़ा शाम को जब दरयाव सिंह जी आये, हज़रत शाह साहब ने उनका सलाम कबूल नहीं किया और डाँटते हुए बोले, ''निकल जाओ यहाँ से, खबरदार, अब मुँह न दिखाना ।'' अब दरयाव सिंह जी वहाँ से निकल कर चल दिये । तीन दिन रात खेतों में पागलों की तरह घूमते रहे । न अन्न ग्रहण किया, न जल पिया । पुनः हज़रत शाह साहब ने उन्हें अपनी तवज्जोह से प्रेरित किया और वह बस्ती की ओर गये । वहाँ जाकर देखा कि वह बुढ़िया दादी पड़ी हैं । उनके पास गये और कहा, ''अब क्यों पड़ी है, चल उठ, निकलवा तो दिया, अब भी चैन नहीं है ।'' यह सुनते ही दादी उठी और बिल्कुल ठीक हो गयी । इसके बाद हज़रत शाह ने उन्हें पुनः बुलवा लिया ।
पिता जी की मृत्यु के पश्चात् दरयाव सिंह जी के भाइयों में बँटवारा हुआ । पिता जी बहुत सम्पन्न और हाथी नशीन थे । दरयाव सिंह अपने भाइयों में सबसे छोटे थे । बँटवारे में आपको मवेशियों वाला घर दिया गया । और घर के टूटे-फूटे बरतनों के साथ 20 सेर जौ हिस्से में मिले । दरयाव सिंह ने न कुछ कहा न कोई शिकायत की । इस सिलसिले में आ जाने पर मनुष्य स्वभावतः षट्विकारों से अप्रभावी रहता है । मन में भी किसी तरह का दुर्भाव नहीं पैदा हुआ ।
कुछ ही दिनों बाद दरयाव सिंह का एक दोस्त उनके पास आया और कहा, ''भाई, तुम व्यापार क्यों नहीं करते'' । 5000 रुपये की पीली सरसों भर लो अच्छा मौका है । ''दरयाव सिंह मुस्कराये, ''क्या मजाक करते हो यहाँ पाँच पैसे नहीं हैं ।'' दोस्त ने जवाब दिया पैसे मैं लगा दूँगा । घाटा हो जाय तुम से कोई मतलब नहीं । केवल तुम 'हाँ' कर दो । इस पर दरयाव सिंह जी ने कहा, ''तब मुझे क्या एतराज, इतना तो तुम बिना पूछे कर सकते थे ।'' दोस्त ने फ़रमाया, ''बिना तुम्हारी 'हाँ' किये कैसे करता ।'' इस समझौते के अनुसार 5000 रुपये की पीली सरसों भरी गयी । अल्लाह पाक ने बरकत की । फायदा हुआ और धीरे-धीरे उनका व्यापार चल पड़ा । बाद में उन्होंने हाथी भी खरीदा ।
पं॰ दरयाव सिंह का देहान्त जवानी में ही हो गया । हिन्दू प्रथा के अनुसार उनकी चिता लगायी गयी । चिता में अग्नि देने के पश्चात् देखा गया कि सभी लकड़ी तो जल गयी परन्तु लाश वैसी ही रक्खी है । दुबारा फिर चिता लगायी गई मगर लाश वैसी की वैसी बनी रही । जब तीसरी बार चिता लगायी गयी तब अग्नि देने के पूर्व उनके बड़े भाई ने दरयाव सिंह के दाहिने कान में कहा, ''दरयाव सिंह जिस राज को तुम जिन्दगी भर छुपाये रहे क्या अब आखीर वक्त परदाफाश करोगे'' यह कह कर उन्होंने आग लगायी । थोड़ी ही देर में चारों ओर से आग की लपटे धू-धू करके उठने लगी और आकाश तक अग्नि-पुन्ज का एक गुम्बद सा बन गया । जब आग की लपटें कम हुई तब देखा गया कि लकड़ियाँ तो सब जल रही हैं मगर चिता में रक्खा 'शव' नहीं है । जाहिर है कि पं॰ दरयाव सिंह अपने पीर में इस क़दर फ़ना थे कि पीर की अक़ीदत उनकी अक़ीदत बन गयी थी ।
तज़किरा ज़नाब शाहपुराधीश का
जयपुर के पास एक रियासत थी । वहाँ के हिन्दू राजा शाहपुराधीश कहलाते थे । वह आपके शिष्य थे और आपकी सोहबत में वह भी कामिल फकीर हो गये थे । वह जब कभी भौगाँव तशरीफ लाते थे तब रेल्वे स्टेशन से हज़रत शाह साहब के घर पैदल ही आते थे बावजूद इसके कि हज़रत शाह साहब खुद ही उनकी सवारी का इन्तजाम कर देते थे । उनका कहना था कि अपने ऐसे बुजुर्ग के यहाँ सवारी पर जाना बेअदबी है । उन्हीं शाहपुराधीश ने अपने अन्तिम समय पर कलमा शरीफ पढ़ा और कलमा शरीफ के आखिरी लफ़्ज़ के साथ आपकी आखिरी सांस निकली ।
हज़रत शाह साहब ज़ाहिर धर्म परिवर्तन के घोर विरोधी थे । आगरा के एक सज्जन, जिनका नाम लिखना लाजिम न होगा, आपके पास आये और आपकी इम्दाद से इस्लाम कबूल करने की ख्वाहिश जाहिर की और बड़ी जिद की । परन्तु हज़रत शाह साहब ने दृढ़ता पूर्वक विरोध किया और उनको आजीवन हिन्दू बने रहने का जोर दिया और वह हिन्दू ही बने रहे ।
भौगांव बस्ती के चन्द मुसलमान आपके मुरीद थे और आपसे बैअत होकर कामिल इन्सान बने । आपसे असंख्य हिन्दू फैजयाब होकर मन्जिले मकसूद पर पहुँचे । सिर्फ इन्सान ही रूहानी मेराज को पहुंच कर पुरनूर नहीं हुए बल्कि जिन्नात की काफी तादाद भी आपसे बराबर फैजयाब होती रही ।
जिन्नात
शुरू में जब आप मुस्तक़िल तौर से भौगांव में रहने लगे तो जिन्नात में आपकी रूहानी बुलन्दी की शोहरत हुई । एक जिन्न ने आपका इम्तहान लिया । वह जिन्न अत्यंत बूढ़ा व अपाहिज बन कर रात के अंधेरे में उस रास्ते पर बैठ गया जहाँ से हज़रत शाह साहब गुजरे । उस जिन्न ने आपसे किसी जगह ले जाने का अर्ज किया । आप उसे अपनी पीठ पर लाद कर वहां तक ले गये जहां वह चाहता था । उसी जिन्न ने अपनी जमात में बताया, ''उस फकीर के बारे में जो कुछ सुना है, वह उससे भी कहीं आगे है ।'' फिर जिन्नात आधी रात के सन्नाटे में आपकी सोहबत में आते और मराक़बा करके लौट जाते ।
जिन्नात को आपके अन्य मुरीदों ने इत्तफाकन देखा भी था । एक बार एक साहब जिद करके देर तक बैठे रहे और हज़रत शाह साहब के बार-बार कहने पर भी न गये । उधर जिन्नात उनके यहाँ आने के लिये बेताब थे । बाद में जब वह साहब जाने के लिये बाहर निकले तो देखा कि एक भीमकाय आदमी खड़ा है । उसे देखते ही उनकी चीख निकल गयी । फिर आपने उन्हें अपने एक पोते के हमराह कर दिया । बाद में जब वह जिन्न अपने साथियों के साथ अन्दर दाखिल हुआ तो हज़रत शाह ने उसे बहुत डांटा कि उसने इन्तजार क्यों नहीं किया ।
इसी प्रकार की एक दूसरी घटना भी है । एक बार अर्द्ध रात्रि के पश्चात् आपने अपने द्वितीय पोते ज़नाब मुग़नी साहब को आवाज दी कि वह आंगन के दरवाजे पर रक्खी लालटेन को लेकर उनके एक मुरीद को भेज आयें । ज़नाब मुग़नी साहब जब तक आते उसके कब्ल ही उस मुरीद ने देखा कि बाहर के दरवाजे से एक हाथ अन्दर आया, और लालटेन उठा ली और बाहर रख दी । जिन्न की इस हरकत को देख कर हज़रत शाह साहब बहुत नाराज हुए और फ़रमाया कि यह उसकी कैसे जुर्रत हुई और कहा कि अब मैं आप लोगों को घण्टों इन्तजार कराया करुंगा । जिन्नात ने माफी माँगी और वादा किया कि आइंदा ऐसा कभी न करेंगे ।
जिन्नात से छुटकारा दिलवाने के आपके कई वाक़यात हैं । उनमें दो वाक़यात लिखे जाते हैं ।
शिकोहाबाद क़स्बे के एक एडवोकेट साहब का भरा पूरा सम्पन्न परिवार था । उनके एक क्वाँरी लड़की थी । वह लड़की अपने घर के तिमञ्जिले पर मादर जाद नंगी रहती थी । वहाँ कोई जा नहीं सकता था । यदि कोई हिम्मत करता तो तीसरे मञ्जिल की सीढ़ियों पर चढ़ते ही नीचे फेंक दिया जाता था । इस प्रकार 6 महीने व्यतीत हो गये थे, कोई उपाय कारगर नहीं होता था । एडवोकेट साहब हज़रत शाह साहब के आगे गिड़गिड़ाये । आप वहां तशरीफ ले गये, मामले पर गौर किया । फिर एडवोकेट साहब को बुलाकर कहा, ''मैं एक खत लिखता हूँ । आप उसे ले जाकर लड़की को इस प्रकार दिखायें कि वह पढ़ ले । आप डरे नहीं आपको सीढ़ियों से कोई न फेंक पायेगा ।'' आपने एक बड़े कागज पर लिखा, ''आप इस लड़की को छोड़कर चले जाइये, वरना मामला आगे बढ़ा दिया जायेगा । फकीर अब्दुल ग़नी नक़्शबन्दी मुजद्दिदी मज़हरी नईमी'' और फ़रमाया कि एक मशाल के साथ कागज को इस तरह ले जाओ कि कागज लड़की के सामने रहे ।
जब एडवोकेट साहब कागज और मशाल को लेकर सीढ़ियों पर चढ़ने लगे, तो उस लड़की ने ललकारा ''यहां कौन आ रहा है ।'' मगर एडवोकेट साहब डरे नहीं, और उस कागज को लड़की के सामने पेश कर दिया । जैसे ही उस कागज की इबारत को उस लड़की ने पढ़ा, कहा ''जाइये'' । इसके बाद वह लड़की उतर कर नीचे दूसरे खण्ड पर आ गयी और हज़रत शाह साहब से कहा, ''अस सलामइलेकुम, मुझे इल्म न था कि आप इस बस्ती में रौनक अफरोज हैं, वरना यह गुस्ताखी हरगिज न होती । मैं इसी वक्त जा रहा हूँ । सलामइलेकुम ।'' इसके बाद वह लड़की ठीक हो गयी और हमेशा-हमेशा के लिये ठीक रही ।
एक बार आप सड़क के किनारे-किनारे जा रहे थे और आपके मुखालिफ ओर से एक बैल गाड़ी आ रही थी जिस पर 3, 4 लोग सवार थे । उनके साथ एक मादरजाद नंगी औरत भी थी । ज्योंही उस औरत ने हज़रत शाह साहब को अपनी ओर आते देखा त्यों ही अपने कपड़े पहन कर कायदे से बैठ गयी । यह देखकर आप फौरन समझ गये और बैल गाड़ी पर सवार लोगों से पूछा कि माजरा क्या है । उन लोगों ने कहा, ''यह औरत इसी तरह नंगी रहती है, जहां चाहती है जाती है, गन्दी-गन्दी बातें बकती है । आपको देखकर न जाने क्यों कपड़े पहन कर अदब से बैठ गयी ।'' इसके बाद हज़रत शाह साहब ने एक खाली शीशी माँगी । इत्तिफ़ाक़ से शीशी मिल गयी । उस शीशी को लेकर आपने कुछ पढ़ा और दम किया, फिर हिदायत की कि उस शीशी को जमीन में गाड़ दें । इसके बाद वह औरत बाकी जिन्दगी भर ठीक रही ।
इस प्रकार प्रेत बाधा व आसेव के पचीसों किस्से लोगों की जबान पर हैं । यही नहीं आप शारीरिक व्याधियों को भी सल्ब कर लिया करते थे । कहना चाहिए कि आप हुस्ने अख़लाक़ के सरे चश्मा थे । उनके फ़ैज़ का दरिया हमेशा बहता रहता था । दरिया की दो धारायें थीं । एक रूहानी और दूसरी दुनियावी । अपनी-अपनी पहुँच के मुताबिक लोग उससे लाभान्वित होते थे ।
आप एक नवाब साहब के शाहज़ादे का भी तजकिरा किया करते थे । वह शाहज़ादा जन्म से ही नामर्द था और उसकी शादी तै हो गयी । किसी तरह लड़की वालों को उसके नामर्द होने का पता लग गया । शादी तै हो चुकी थी अतः लड़की वाले बड़े पसोपेश में थे । इनकार कैसे करते और जान बूझकर करते भी कैसे ? आखिर लड़की वालों ने एक शर्त रक्खी कि वे शाहज़ादे के पुंसत्व (नामर्दी) की परीक्षा लेंगे । शाहज़ादे ने यह खबर सुनी तो बहुत घबराया और ज़नाब किबला फज्ल अहमद खाँ साहब के पास रायपुर गया और उनसे इस मौक़े पर अपनी इज्जत बरकरार रहने की दरख्वास्त की । ज़नाब हुजूर साहब ने फ़रमाया, आप अपनी यह दरख्वास्त मेरे पीर भाई ग़नी अद्दा से करें ।''
अद्दा शब्द का इस्तेमाल मुसलमानों के यहाँ अपने से बड़े के लिए अदबन किया जाता है और चूँकि ज़नाब शाह साहब अपने पीर व मुर्शिद के बहुत अजीज व प्यारे थे जिसके कारण ज़नाब हुजूर साहब भी उनका अहतराम (सम्मान) करते थे तथा उनके नाम के बाद अद्दा लगाकर सम्बोधित किया करते थे जबकि वह उनसे बहुत छोटे थे ।
शाहज़ादे साहब हज़रत शाह साहब की खिदमत में गये और अपनी अर्जी पेश की । आपने बड़े इत्मीनान से उनकी बात पर गौर किया और आश्वासन दिया कि वह घबरायें नहीं । जिस दिन उनकी परीक्षा हो उसके कब्ल आपको इत्तिला करें । शाहज़ादे ने उस दिन से हज़रत शाह साहब से बराबर ताल्लुक बनाये रक्खा और परीक्षा के दिन की पहले ही से इत्तिला कर दी । हज़रत शाह साहब ने बेखटके रहने की सलाह दी । परीक्षा के दिन एक तवायफ लायी गयी और आपको एक कमरे में बैठाया गया । वह तवायफ जब कमरे के दरवाजे पर पहुँची तो अन्दर प्रवेश करने की हिम्मत न जुटा सकी । शाहज़ादे ने उसे बारहा बुलाया मगर वह कमरे में नहीं घुसी और हम-बिस्तरी से बाज़ रहने के लिए हाथ जोड़ कर माफी माँगी । उस तवायफ ने लड़की वालों को उस तथ्य को ग़लत बताया और शाहज़ादे की मरदानगी की ताईद की । इसके बाद शाहज़ादे ने शादी करने से इकार कर दिया ।
हज़रत शाह साहब की हमदर्दी व मुहब्बत के न जाने कितने वाकयात हैं जिनका जिक्र करना मुमकिन न होगा । परन्तु ज़नाब रमेश बाबू को खुद का एक तजुरबा यहाँ लिखा जाता है । रूहानी तालीम की गरज से आपके सम्पर्क में ज़नाब रमेश बाबू बचपन से ही थे और हज़रत शाह साहब के इन संस्मरणों के सूत्रधार भी हैं । जिन दिनों वह कन्नौज के इन्टर कालेज में पढ़ते थे मलेरिया के ज्वर से पीड़ित रहा करते थे । छुट्टी लेकर घर जाते और दवा इत्यादि लेने से ठीक हो जाते थे परन्तु ज्योंही फिर कालेज में पहुँचते बीमार हो जाते । इत्तिफ़ाक़ से हज़रत शाह साहब उन दिनों एक मुरीद के पास कन्नौज रेल्वे स्टेशन पर आये हुए थे । उनका वह मुरीद स्टेशन पर ही पी॰ डब्लू॰ आई॰ था और उसी ने आपको ज़नाब रमेश बाबू की बीमारी का हाल बताया । लिहाज़ा आप उन्हें देखने गये । उनकी चारपायी पर बैठ कर उन्हें अपनी बायीं ओर बिलकुल सटे हुए बिठला कर कुछ देर बातें की और चलने के चन्द मिनट पेश्तर उनके सिर से घुटने के नीचे तक अपना दाहिना हाथ फेरते हुए यह पूछते जाते थे, ''क्या बेटे यहाँ भी दर्द है ?'' ऐसा करने के बाद वह दुआ देकर चले गये । उनके जाते ही ज़नाब रमेश बाबू का सारा दर्द व तेज ज्वर गायब हो गया ।
तरीका तालीम
अपने पीर ज़नाब खलीफा जी से रूहानी तालीम हासिल करते वक्त आपको बड़े-बड़े इम्तहानों से गुजरना पड़ा । आपका ही बताया हुआ एक वाकया मुन्दर्ज़े ज़ैल है ।
यह जिक्र शुरू में ही हो चुका है कि बचपन से आप अपने पीर मुरशिद के सम्पर्क में आ गये थे । दुनियावी तालीम के साथ-साथ रूहानी तालीम का भी सिलसिला चल रहा था । एक बार हज़रत शाह साहब अपने ही दरवाजे पर चारपायी पर लेटे हुए मराकबा कर रहे थे । आपको महसूस हुआ कि कोई आपकी चारपायी के आसपास नाच रहा है । सिरहाने से पैताने की ओर और पैताने से सिरहाने की ओर जाता है । आप साफ तौर से घुँघरवों व करधनी की आवाज सुन रहे थे । 'यह क्या माजरा है' यह जानने के लिये आपने आँखें खोली । क्या देखते हैं कि एक बहुत ही खूबसूरत षोडसी नाच रही है । आप अपनी आँखें बन्द करके फिर मराक़िब हो गये जैसे कुछ था ही नहीं । आप जब ज़नाब खलीफा जी साहब के यहाँ पहुँचे तो उन्होंने आपसे दरयाफ़्त किया कि आपने मराक़बे के वक्त उस हसीना को देखने के लिये आँखें क्यों खोली । आपने जवाब दिया, ''मैंने देखा ही तो था मेरी नियत बद तो नहीं हुई ।'' ऐसी बा हिम्मत साफगोई से जाहिर है कि ऐसे वाकयात से आप कितने बे असर रहे । तस्फ़िया क़ल्ब व तज़किया नफ़्स की तालीम समानान्तर रूप से करना इस सिलसिले के पीराने उज्ज़ाम की विशेषता है ।
हज़रत शाह साहब के पीर ने जिस प्रकार आपकी रूहानी तालीम, लतीफा क़ल्ब को अल्लाह के नाम व जज़्ब से मुनव्वर कर लतीफा नफ़्स के जुमला अनासिर की तरतीबी दुरुस्ती करते हुए अपनी तवज्जोह से बक़ाउलबक़ा के मुकाम तक पहुँचाने में दरस की थी, ठीक उसी प्रकार आपने भी अपने जुम्ला मुरीदैन की रूहानी परवरिश की । नफ़्स के तहत एमाले बद से बचते हुए एमाले हस्ना की तौफीक सालिक को अपने तसर्रुफ तवज्जोह से अता फ़रमाते थे और जबानी ताकीद व हिदायत भी इस अम्र की करते थे । बसा औकात इस पर जोर देने की ग़रज़ से एक घटना भी सुनाया करते थे ।
हैदराबाद में एक जलसा किया गया था । उसकी चर्चा का विषय था 'फकीरी किसे कहते हैं' । उस जलसे में मुल्क के तमाम उल्मा व फकीर इकट्ठे हुए थे । वहाँ आमतौर से लोगों ने बड़ी लम्बी-लम्बी तक़रीरें की । उन्हीं वक्ताओं में एक जवान लड़का भी था जिसने केवल इतना ही कहा कि 'तर्के एमाले बद को फकीरी' कहते हैं । अन्त में वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने उपर्युक्त इस वाक्य को ही फकीरी की परिभाषा स्वीकार की थी । कहना न होगा कि हज़रत शाह साहब इस परिभाषा के अनुरूप ही फकीर थे और जोर देकर फ़रमाते थे कि हर बुजुर्ग को अपने मुरीदैन को इसी तरह आगे ले चलना चाहिये ।
आप आध्यात्मिक सेवा में अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक संलग्न रहे और उनकी दया व कृपा से असंख्य लोगों का उद्धार हुआ । आप प्रायः कहा करते थे, ''इबादत बजुज ख़िदमतें खल्क नेस्त'' (जीव मात्र की सेवा के सिवाय कोई अन्य पूजा नहीं) । बिना किसी भेदभाव के आपने अपना सम्पूर्ण जीवन प्राणि मात्र की सेवा में समर्पित रक्खा और 30 मार्च, 1952 को इस दुनियाय फानी से कूच कर गये । भौगांव में ही उस बाग में, जो ज़नाब लालाजी साहब व उनके छोटे भाई ज़नाब चच्चा जी साहब ने हज़रत शाह साहब के नाम लिख दिया था, आपकी मजार शरीफ स्थित है और तालिब आज भी उस मजार की फ़ैज से सरशार हो रहा है । ''इन्ना (लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन' (सब कुछ अल्लाह के लिये है और सब उसी की तरफ लौट जायेंगे)